गया श्राद्ध या ब्रह्म कपाली पर पिंडदान के बाद भी कर सकते हैं श्राद्ध
उज्जैन, अग्निपथ। 10 सितम्बर से श्राद्धपक्ष शुरू होने वाला है। भारतीय सनातन धर्म परंपरा में पौराणिक तथा धर्म शास्त्रीय अभिमत है कि पितरों के निमित्त किए जाने वाले श्राद्ध की परंपरा को तीर्थों पर ही संपादित करना चाहिए ऑनलाइन श्राद्ध नहीं। क्योंकि तीर्थों पर ही पंचमहाभूत की प्रबल साक्षी मानी जाती है। साथ ही नदी की साक्षी तीर्थ के देवता की प्रबल साक्षी ही श्राद्ध कर्म को परिपूर्ण बनाती है।
ज्योतिषाचार्य पं. अमर डिब्बावाला ने बताया कि पौराणिक व धर्म शास्त्रीय मान्यता के आधार पर देखें तो पार्वण श्राद्ध, एकोद्दिष्ट श्राद्ध की जो प्रक्रिया है अथवा अष्टका श्राद्ध व अन्वष्टका श्राद्ध की जो क्रिया है, उसे वैदिक विद्वान के सानिध्य में संपादित करना चाहिए। पौराणिक मान्यताओं में जिसमें गरुड़ पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण यम स्मृति आदि ग्रंथों में श्राद्ध कर्म की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। जिसमें अलग-अलग स्थितियों को लेकर के श्राद्ध के संबंध में बताया गया है।
जो लोग गया श्राद्ध कर देते हैं, उन लोगों को भी प्रतिवर्ष अपने पितरों के निमित्त पार्णव श्राद्ध व एकोद्दिष्ट श्राद्ध की विधि करना चाहिए। साथ ही धूप ध्यान तथा ब्राह्मण भोजन का अनुक्रम भी करना चाहिए। क्योंकि पितरों के द्वारा वह पंचमहाभूत को प्राप्त होता है। जिससे प्रकृति में संतुलन की स्थिति बनती है। ब्रह्म कपाली के विषय में भी श्राद्ध के अलग-अलग भेद बताए गए हैं जिसके माध्यम से पितरों को पूजना चाहिए। क्योंकि श्राद्ध यथार्थ में पितरों के निमित्त श्रद्धा का भाव व्यक्त करना ही श्राद्ध कहलाता है।
कुतप काल में करेें श्राद्ध
श्राद्ध में कुछ बातें अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसे कुतप वेला__दिन का आठवां मुहूर्त दिन में 11.36 से 12.24 तक का समय यह श्राद्ध के लिए मुख्य रूप से प्रशस्त माना गया है। इसे ही कुतप काल कहा गया है। कुत्सित अर्थात पाप को संतुष्ट करने के कारण इसे कुतप कहा गया है।
श्राद्ध में निषिद्ध गंध
चंदन, खस सहित सफेद चंदन पितृ कार्य के लिए प्रशस्त है।
कस्तूरी रक्तचंदन गोरोचन सल्लक तथा पुतिक आदि निषिद्ध है।
श्राद्ध में त्यागने योग्य पुष्प
कदंब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर लाल तथा काले रंग के सभी पुष्प वर्जित है।