कश्मीर की डल झील में तैरता आशियाना…

कश्मीर डायरी अंतिम किश्त

लेखक-मधुकर पंवार
भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में क्षेत्रीय लोक संपर्क ब्यूरो के पद पर कार्यरत हैं।

कश्मीर ही नहीं पूरे देश में प्रसिद्ध… डल झील का नाम सुनते ही हमारे दिलो दिमाग में कल्पनाओं की लहरें हिलोरें खाने लगती हैं। और जब डल झील (लेक) में हाऊसबोट में ठहरने का मौक़ा मिले तो दिल निशात गार्डन जैसे बाग-बाग हो जाता है। आखिर क्यों न हो…. पानी पर तैरता आशियाना…. कश्मीर घूमने जाने वाले पर्यटकों की भी दिली इच्छा रहती है कि एक रात हाऊसबोट में जरूर बिताएँ। और मेरा भी कश्मीर यात्रा का अन्तिम पड़ाव डल झील में हाऊसबोट ही रहा।

डल झील में आठ सौ से अधिक हाऊसबोट हैं। इनकी भी होटल के समान श्रेणियाँ होती हैं। मई जून में तो यहाँ पर्यटकों की गहमा गहमी होती है लेकिन धारा 370 हटाने के बाद और कोरोना की वजह से लगाए गए लाकडाऊन के बाद पर्यटकों की आवाजाही पर रोक सी लग गई थी। लाकडाऊन समाप्त होने के बाद शनै: शनै: पर्यटकों के आने का सिलसिला शुरू हो गया है लेकिन डल झील मेँ रौनक आना अभी बाकी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि सात कमरे वाले हाऊसबोट में केवल मेरा ही परिवार था…. अधिकांश हाऊसबोट के कमरे खाली थे… लेकिन हाऊसबोट के मालिक मो. गुलाम नबी गुरू को उम्मीद थी कि क्रिसमस और नए वर्ष मेँ स्थिति मेँ सुधार आयेगा।

हाऊसबोट में पहली बार ही रहने का मौका मिला था और छोटी नाव से जब हाऊसबोट पर पहुंचे तो लकड़ी पर बनाई गई खूबसूरत नक्काशी को एकटक देखते ही रह गए। चूंकि हाऊसबोट पूरी तरह देवदार की लकड़ी से ही बनी होती है। हाल में बड़ी सिगड़ी जल रही थी… मन में थोड़ी आशंका हुई लेकिन हाऊसबोट की देखरेख करने वाले मो. नजीर ने आश्वस्त किया कि यह पूरी तरह सुरक्षित है। आपका कमरा भी गरम रहेगा। ऐसा कहते हुये उन्होने कुछ लकड़ी सिगड़ी में डाल दी। और वाकई बड़ी सिगड़ी जिसमें काफी मात्रा में लकड़ी डाली थी… धुआँ चिमनी में लगे जैसे पाईप से बाहर निकल रहा था… हम निश्चिंत हो गए कि लकड़ी का धुआँ हमें परेशान नहीं करेगा। हाल का वातावरण गरम हो गया था और बातों का सिलसिला भी।

मो. नजीर ने हाऊसबोट के बारे में काफी जानकारी दी तो हाऊसबोट के मालिक से मिलने की इच्छा हुई और सुबह मो. गुलाम नबी गुरू से मुलाक़ात भी हो गई। मैंने हाऊसबोट के बारे में जानना चाहा तो उन्होने बताया… आप जिस हाऊसबोट में ठहरे हैं यह सन 1989 में बनाया गया था… उसके बाद कोई भी हाऊसबोट नहीं बना है। मुझे फक्र हुआ कि मुझे उस हाऊसबोट में ठहरने का मौका मिला है। मैंने कारण जानना चाहा तो उन्होने बताया कि इसके अनेक कारण हैं लेकिन मोटेतौर पर देवदार की लकड़ी की अधिक कीमत, कारीगरों की कमी और लागत में वृद्धि मुख्य हैं। उन्होने बताया कि एक मानक हाऊसबोट की लंबाई 141 फुट, चौड़ाई 18 फुट और गहराई करीब 16 फुट होती है। देवदार की लकड़ी से बना यह हाऊसबोट करीब 6 फीट पानी में और 10 फीट ऊपर रहता है। मो. गुरू ने बताया कि एक हाऊसबोट बनाने में कम से कम छह हजार घन फीट देवदार की लकड़ी इस्तेमाल होती है और एक घन फुट लकड़ी की कीमत 5 हजार रुपये है। लकड़ी, कारीगरों की मजदूरी और सजावट, जरूरी सामान आदि को मिलाकर वर्तमान में एक हाऊसबोट बनाने में 4 से 5 करोड़ रुपये की लागत आएगी। इसलिए अब हाऊसबोट की मरम्मत ही की जा रही है। 1989 के बाद से एक भी नया हाऊसबोट नहीं बनाया गया। उन्होने बताया कि 1989 में बनाए गए हाऊसबोट की लागत 25 लाख रुपए आयी थी। मो. गुरू चाहते हैं कि हाऊसबोट को धरोहर घोषित किया जाना चाहिए।

मो. गुलाम नबी गुरू कहते हैं कि धारा 370 हटाने के बाद हालात सुधर ही रहे थे कि कोरोना का कहर शुरू हो गया जिसके कारण कश्मीर का मुख्य उद्योग पर्यटन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। उन्होने बताया कि ताँबा, कारपेट, वुडन वर्क कश्मीर की पहचान है। प्रत्येक घर में ताँबे के बरतन बहुतायत मात्रा में पाये जाते हैं। बिना ताँबा के हम अपने घर की कल्पना भी नहीं कर सकते ..बाकी कारपेट, वुडन वर्क और हस्तशिल्प पर्यटकों के लिए ज्यादा उपयोगी होता है। यदि पर्यटक नहीं आएंगे तो कारीगरों को आजीविका चलाने में काफी मुश्किलात का सामना करना पड़ सकता है। कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहने की बात पर मो. गुरू ने कहा कि तकरीबन पाँच सौ साल पहले जहांगीर ने कहा था … अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है … वे इस बात पर ज़ोर देकर कहते हैं कि पाँच सौ बरस पहले तो केवल जंगल ही रहा होगा। रास्ते, आवागमन के साधन और अन्य सुविधाएं तो बिलकुल भी नहीं रही होगी॥ तब जहांगीर ने कश्मीर में ऐसा क्या देखा कि उनके मुंह से निकल गया… गर फिरदौस बर – रू – ए जमीं अस्त, हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त यानि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है… यहीं है…यहीं है । मुझे उनकी बात में दम लगा कि बात तो ठीक ही है…

रात के भोजन के दौरान हाऊसबोट की देखरेख करने वाले मो. नजीर से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो मैंने उसके मूल निवास स्थान के बारे में पूछा…. वह खुश होकर बोला…. तेरा व्यवहार अच्छा लगा इसालिए सब बताता हूँ… मेरा गाँव वहडान…. पहलगाम के पास है। वहाँ मेरा बेटा, बेटी और पत्नी रहती है। अपना घर है… वह धीरे से कहता है… बेटा जो करे उसे करने दो… यदि उसे कोई लडक़ी पसंद हो तो वहीं उसकी उसी से शादी करा दो…मैंने भी अपने बेटे की शादी उसी की पसंद की लडक़ी से करवा दी और उसका एक बेटा भी है… और न जाने उसने कितनी ही बांते बताई जिनका उल्लेख करना मुनासिब नहीं है। सिर्फ इतनी ही कि…. उसने कहा… दिल्ली में कितना प्रदूषण है और यहाँ…. बिलकुल भी नहीं यानि जीरो… यदि यहाँ भी कारखाने लग गए और कारखाने लगाने के लिए जंगल काट दिये तो यहाँ भी दिल्ली जैसे हालात हो जाएँगे…। मैंने कहा… दिल्ली जैसे हालात होने में कई सदियाँ लग जाएंगी।
श्रीनगर में तो अनेक दर्शनीय स्थल हैं लेकिन जल्दी दिन ढल जाने और ठंड का प्रकोप शुरू होने जाने के कारण चश्मे शाही और निशात गार्डन ही देख पाये.। चश्मे शाही में तो पानी का झरना यथावत बह रहा है लेकिन वहाँ और निशात गार्डन अभी सूने हैं यानि क्यारियाँ बनाई जा रही हैं। पौधे लगाने की तैयारी हो रही है। निशात गार्डन के माली ने बताया मार्च से सितंबर अक्टूबर तक यहाँ तो फूलों की रौनक रहती है। एक तरफ इशारा करते हुये उन्होने बताया… यहाँ 25 से भी अधिक प्रजाति के गुलाब के फूल खिलेंगे। माली ने ज़ोर देकर कहा… अप्रैल, मई जून में तो जो एक बार यहाँ आ जाता है उसका जाने का मन ही नहीं करता॥
निशात गार्डन से चलते समय मैंने पत्नी से कहा… वहाँ फूल के पौधे के पास खड़ी हो जाओ…. एक फोटो खींच लेता हूँ… तभी 24-25 बरस का एक नौजवान, जो अपनी पत्नी/महिला मित्र के साथ बाग से बाहर जा रहा था… तेजी से पास आकर बोला… मोहब्बत करने वालों के शहर कश्मीर आए हो और फोटो भी अलग-अलग होकर खींच रहे हो. आओ एकसाथ खड़े हो जाओ…मैं फोटो खींच देता हूँ। उस युवा की बात सुनकर मैं और सुरेखा ( पत्नी) एकसाथ खड़े हुये और उसने मेरे मोबाइल से तीन चार फोटो खींच कर मुझे मोबाइल देकर मुस्कराते हुये अपने गंतव्य की ओर चला गया।

चलते-चलते मो. गुलाम नबी गुरू की एक बात याद आ गई कि यदि पर्यटक नहीं आएंगे तो यहाँ की हस्तकला के उत्पाद कौन खरीदेगा? जब हाऊसबोट से वापस आने के लिए छोटी नाव पर सवार हुये तो नाव के दोनों ओर एक एक नाव चलने लगी जिनपर हस्तकला के उत्पाद बेचने वाले खरीदने का आग्रह करते रहे। जो पसंद आए खरीदे… कुछ नहीं खरीद पाये यही सोचकर फिर जल्दी आएंगे… और जो देखने का रह गया… जी भर कर देखेंगे। वापसी में कभी न भूलने वाले दृश्यों के साथ यह भी याद रह गया… गर फिरदौस बर – रू – ए जमीं अस्त, हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त… ।

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