ऊंट की पीठ पर बच्चे, खाट, आटा-दाल और मेमने लाद कर करते हैं सफर…

खानाबदोश: राजस्थानी संस्कृति की झलक के साथ पीड़ा से रूबरू कराते चरवाहे

महिदपुर रोड, (गिरजाधर शर्मा, नरेंद्र पंड्या भूतेड़ा) अग्निपथ। क्षैत्र में अक्सर मार्गों पर सैकड़ों भेड़, बकरियों और ऊंट के साथ राजस्थान लोगों का काफिला देखा जा सकता है। जो न सिर्फ राजस्थान की संस्कृति की झलक दर्शाता है, बल्कि उन की पीड़ा से भी रूबरू कराता है। इनका अनूठा पहनावा मन को भाता है।

राजस्थान के जोधपुर जिले से शुरू होकर इन चरवाहों का काफिला चित्तौड़ नीमच मंदसौर से होते हुए क्षेत्र में आता है। यह चरवाहे करीब 9 माह के लिये अपने परिवार के साथ आते हैं। ये चरवाहे ऊंट और कुत्ते भी लेकर चलते हैं। ऊंट की पीठ पर बच्चों के साथ खाट, आटा-दाल और मेमने लाद दिए जाते हैं। कुत्ते रात के समय काफिले के लिये सुरक्षा करते हैं।

दरअसल, राजस्थान में गर्मी और चारे-पानी की कमी के कारण मध्यप्रदेश में भेड़-बकरियां और ऊंटों के साथ कई परिवार आए हुए हैं। सैकड़ों किलोमीटर दूर से चलकर इनके साथ बच्चे भी आए हैं, जो पढऩे और खेलकूद की उम्र में अपने परिवार के साथ कष्टों में जी रहे हैं।

भ्रमण का बताया कारण

जोधपुर से आये लखीराम ने बताया कि वे करीब 600 भेड़ों को लेकर यहां आए हैं। जोधपुर के आसपास पानी की समस्या होती है। यह भेड़ें हमें ठेके पर दी जाती हैं। बाद में हम इन्हें वापस कर देते हैं। लखीराम के परिवार में करीब 22 लोग आए हैं। इनमें महि लाएं बेटे और पोते-पोती भी शामिल हैं।

बच्चों की शिक्षा होती है प्रभावित

लखीराम ने बताया कि वे य दि बच्चों को पढऩे के लिये गांव छोड़ आयेगे, तो उनकी परवरिश कौन करेगा। इसलिये पेट पालने के लिये बच्चों को साथ लेकर आना मजबूरी है। तेज सिंह का कहना है कि जब हम जोधपुर में रहते हैं, तो स्थानीय शिक्षक बच्चों को पढ़ाने बुला लेते हैं। ये चरवाहे गर्मी की दस्तक के पहले ही मध्य प्रदेश की ओर बढ़ जाते हैं और बारिश की दस्तक के साथ आगामी ठंड के मौसम के पहले ही लौटने लगते हैं।

खेती के लिये फायदेमंद

यहां के किसानों का भी मानना है कि जब यह चरवाहे आते हैं, तो सूखे पड़े खेतों में हजारों भेड़े चरने से उन्हें खाद मिल जाती है। इससे फसलों को काफी फायदा होता है। इसके बदले में भेड़ पालक खेत में अपनी भेड़ों को चराते हैं।

भेड़ बेचकर करते गुजारा

ठेके पर भेड़ चराने आते हैं और उनकी आय का साधन भी वहीं होता है। जरूरत पडऩे पर भेड़े और मेमने बेचकर गुजारा करते हैं। एक भेड़ साल में औसतन दो बच्चे देती हैं, जिसमें मेमने की कीमत ढाई हजार रुपये के करीब होती है, जबकि भेड़ की कीमत पांच से छह हजार रुपये होती है।

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