देश के 10 लाख 9 हजार 286 करोड़ रुपये डकार गये देश के औद्योगिक घराने

आप यह जानकार शायद हैरान होंगे कि दुनिया के 10 शीर्ष बैंकों का पैसा हजम करने वालों में 7 भारतीय हैं। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार डूबे कर्ज के मामले में हमारा देश आने वाले समय में दुनिया का सिरमौर होगा।

दिल्ली के तख्तों ताज पर कौन बैठा है इससे फर्क नहीं पड़ता, काँग्रेस की सरकार हो या भारतीय जनता पार्टी की, यू.पी.ए. हो या एन.डी.ए. सभी ने मुक्तहस्त से जनता के गाढ़े खून-पसीने की कमाई को देश के चुनिंदा उद्योगपतियों को देकर उस रकम को डूबी करार देकर बट्टे खाते में डाल दिया है। देश के डूबे कुल 10,09286 करोड़ अर्थात 10 लाख, 9 हजार 286 करोड़ रुपयों में से आधा यानि लगभग पचास प्रतिशत 4 लाख 46 हजार 158 करोड़ रुपये तो मात्र 100 भारतीयों पर ही है।

इस बट्टे खाते में गयी रकम को एन.पी.ए. कहा जाता है। हिंदी में इसे गैर निष्पादित परिसंपत्तियां यानि बैंकों का फंसा कर्ज घोषित किया गया है। 5 फरवरी 2019 को देश की वित्तमंत्री ने राज्यसभा में जानकारी देते हुए बताया था कि डूबे हुए 10 लाख 9 हजार 286 करोड़ में से 8 लाख 64 हजार 433 करोड़ की रकम तो सार्वजनिक क्षेत्रों की बैंकों की ही डूबी है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये रीढ़ की हड्डी के समान बैंकिंग क्षेत्र हैं ऐसे में तेजी से बढ़ रहा एन.पी.ए. (गैर निष्पादित संपत्तियां) देश और बैंकों के लिये बड़ा संकट पैदा कर सकती है। जब दिये गये ऋण की तिथि से 90 दिनों के अंदर उस पर बकाया ब्याज तथा मूलधन की किश्त नहीं चुकाने पर उस ऋण को एन.पी.ए. में शामिल कर लिया जाता है और किसी बैंक का एन.पी.ए. बढ़ता है तो वह मुख्य रूप से तीन तरह से प्रभाव डालता है। (1) बैंक की ऋण देने की क्षमता घट जाती है (2) बैंक के मुनाफे में कमी आ जाती है और तीसरा प्रभाव नकदी का प्रवाह घट जाता है।

2008 के पूर्व तक स्थिति नियंत्रण में थी परंतु 2008 में आयी विश्वव्यापी मंदी का दंश भारतीय अर्थव्यवस्था को भी झेलना पड़ा। मंदी के दौर से बाहर आने के लिये बैंकों ने बड़ी कंपनियों को सरकार के दबाव में आकर क्रेडिट रेटिंग और ग्यारंटी की अनदेखी की, साथ ही जिसे ऋण दिया उसकी वित्तीय स्थिति का अध्ययन भी नहीं किया उससे भारतीय अर्थव्यवस्था में बट्टे खाते का चलन प्रारंभ हुआ। सरकारी बैंकों ने टेक्सटाइल उद्योग, उड्डयन, कोयले की खदानों, आधारभूत ढाँचे और सीमेंट इण्डस्ट्रीज को खूब पैसा बाटा इसके कारण 2005 में जहाँ एन.पी.ए. 3.51 लाख करोड़ था वह 2017 तक बढक़र 8.29 लाख करोड़ हो गया। जिन बैंकों का पैसा डूबा उनमें भारतीय स्टेट बैंक 2 लाख करोड़, पंजाब नेशनल बैंक 55 हजार करोड़, बैंक ऑफ इंडिया 46 हजार करोड़, आई.डी.बी.आई. 43 हजार करोड़ और गैर सरकारी बैंकों में आई.सी.आई.सी.आई. का 43 हजार करोड़, एक्सिस बैंक का 20 हजार करोड़ तथा एच.डी.एफ.सी. बैंक का 7 हजार करोड़ रुपया है।

इस सारे बट्टे खाते के खेल में देश के 10 बड़े औद्योगिक घराने शामिल है जो कि बैंकों का 5 लाख करोड़ अर्थात 5,00,000 करोड़ डकार गये हैं और इन डिफाल्टर बकायादारों के यहाँ मंत्री से लेकर मीडिया सब हाजिरी लगाते हैं। इन खलनायकों की बानगी देखिये (1) भूषण स्टील 44477 करोड़ (2) एस्सार स्टील 37284 करोड़ (3) भूषण पावर 37248 करोड़ (4) एल्ट्रो स्टील 10274 करोड़ (5) मोनेट इस्पात 8944 करोड़ इन पाँचों से ही 1 लाख 38 हजार 227 करोड़ बैंकों को लेना था। एस्सार स्टील पर तो 22 बैंकों का बकाया है।

देश के ख्यातनाम अनिल अंबानी की रिलायंस पर 1 लाख 21 हजार करोड़ का ऋण है जिस पर ब्याज ही प्रतिवर्ष 4 हजार 4 सौ करोड़ का बनता है। और देखिये रुइया के एस्सार गु्रप पर 1 लाख 1461 करोड़, गौतम अडानी जी पर 96 हजार 031 करोड़, जे.पी. समूह वाले मनोज गौड़ पर 75 हजार करोड़, अर्थात देश के 10 औद्योगिक घरानों से ही बैंकों को 5 लाख करोड़ लेना है।

विडंबना है देश की जहाँ 5 लाख लोन ना चुका पाने के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं देश के 10 बड़े औद्योगिक घराने देश की बैंकों का 5 लाख करोड़ हजम करकर डकार भी नहीं ले रहे हैं। वर्ष 2007-2008 में सरकार 8 हजार 09 करोड़ की एन.पी.ए. कर्जमाफी की थी, 2009-2010 में 11 हजार 185 करोड़ की 2010-2011 में 17 हजार 794 करोड़ की केन्द्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार वर्ष 2014 से 2018 के मध्य 3 लाख 16 हजार करोड़ की कर्जमाफी कर दी।

काँग्रेस ने 2009-2010 और 2013-2014 के बीच 1 लाख 45 हजार 226 करोड़ के ऋण खास लोगों को दिये। 2006-2008 में तो उन लोगों को ही कर्ज दिया गया जिनका जानबूझकर कर्जा नहीं चुकाने का इतिहास रहा है। 2014 से 2018 के बीच भाजपा शासन काल में सरकारी बैंकों ने 4 वर्षों के दौरान जितनी रकम की वसूली की उससे 7 गुना ज्यादा रकम बट्टे खाते (डूबत खाते) में डाली।

भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार वसूले 44 हजार 900 करोड़ और डूबे 3 लाख 16 हजार 500 करोड़। 2018-2019 के दौरान 21 सरकारी बैंकों द्वारा जितना देश के स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा का 1 लाख 38 हजार करोड़ का बजट है उससे दोगुनी रकम बट्टे खाते में डाली है। देश के उच्चतम न्यायालय ने 26 अप्रैल 2019 को एक याचिकाकर्ता की अपील पर फैसला देते हुए भारतीय रिजर्व बैंक को निर्देश दिये थे कि डिफाल्टरों की सूची जनता को मुहैया करायी जाए पर उस पर अमल आज तक नहीं हुआ।

सरकारी बैंकों का निजीकरण और विलय की जगह समय-समय पर सहकारी बैंकों के कामकाज को पारदर्शी बनाने के प्रयास, सहकारी बैंकों का ऑडिट (आंतरिक अंकेक्षण) कैग के निर्देशानुसार होने चाहिये और किसी भी कंपनी को ऋण देने के पहले उसकी वित्तीय स्थिति और परियोजना का सूक्ष्म अध्ययन तथा बगैर पर्याप्त सुरक्षा निधि बंधक के ऋण स्वीकृत नहीं किये जाते तो बेहतर होता।
जय हिंद

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