शाजापुर, अग्निपथ। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय, इंदौर खंडपीठ ने शाजापुर स्थित भूतेश्वर महादेव मंदिर परिसर से जुड़े एक महत्वपूर्ण भूमि विवाद में अपीलकर्ताओं की अस्थायी निषेधाज्ञा (स्टे) की मांग को निरस्त कर दिया है। न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कि वादी अपना कब्जा साबित नहीं कर पाए और रिकॉर्ड के अनुसार भूमि पर मंदिर का लंबे समय से सतत कब्जा दर्ज है, ट्रायल कोर्ट के आदेश को पूर्णतः उचित ठहराया।
न्यायमूर्ति पवन कुमार द्विवेदी की एकलपीठ ने दिनांक 21 नवंबर 2025 को पारित अपने आदेश में कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा अस्थायी निषेधाज्ञा अस्वीकार करने के निर्णय में हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं बनता।
ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स ने मंदिर का पक्ष किया मजबूत
हाई कोर्ट ने पाया कि मंदिर के पक्ष में ऐतिहासिक रिकॉर्ड मजबूत हैं, जो दर्शाते हैं:
राजस्व अभिलेखों के अनुसार, वर्ष 1919-20 से 1967-68 तक भूमि पर भूतेश्वर महादेव मंदिर का ही नाम दर्ज है।
1985 और 2008 में नगर पालिका द्वारा मंदिर के पुनर्निर्माण/नवीनीकरण की अनुमति दी गई थी।
अपीलकर्ताओं (अक्षय कुमार जैन, अर्चना जैन, अर्पिता जैन) द्वारा स्वयं पेश 1978 की नजूल एनओसी में पूर्व दिशा पर “कुआँ व शंकर जी का चबूतरा” का स्पष्ट उल्लेख है।
1990 में सिविल कोर्ट द्वारा भी मंदिर के कब्जे की पुष्टि की गई थी।
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि ये सभी रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि भूमि पर मंदिर का कब्जा दीर्घकालिक व सतत रहा है।
दावा प्रथम दृष्टया कमजोर
न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि वादी अक्षय जैन आदि ने अपने शपथपत्र में स्वयं स्वीकार किया कि उन्हें 1957 का कथित विक्रय विलेख 11 अगस्त 2023 को पहली बार मिला। इस पर न्यायालय ने माना कि वादी या उनके परिवार का इस भूमि पर कभी वास्तविक कब्जा नहीं रहा और वादी का दावा प्रथम दृष्टया कमजोर है।
सुविधा का संतुलन मंदिर पक्ष में
न्यायालय ने यह भी देखा कि वादी द्वारा प्रस्तुत फोटोग्राफ के अनुसार, मंदिर परिसर में निर्माण कार्य काफी हद तक पूर्ण हो चुका था। इस अवस्था में रोक लगाने से प्रतिवादी मंदिर पक्ष को अनुचित और अधिक नुकसान होता। अतः सुविधा का संतुलन भी मंदिर पक्ष के पक्ष में माना गया।
मंदिर समिति के वकील की दलीलें
मंदिर समिति के अनूप किरकीरे, जितेंद्र त्रिवेदी, मुकेश चौहान की ओर से वकील गोरांश व्यास ने कोर्ट को बताया कि:
मंदिर बहुत वर्षों से अस्तित्व में है और पिछले 75 वर्षों में वादीगण द्वारा इस भूमि पर स्वामित्व का कोई दावा नहीं किया गया।
22.01.1957 के कथित विक्रय विलेख में न तो सर्वे नंबर है, न ही संपत्ति की स्पष्ट स्थिति का उल्लेख है। नक्शे के अनुसार वादग्रस्त संपत्ति मंदिर से दूर, इमामबाड़ा की ओर है।
वादी पक्ष के एकमात्र स्वतंत्र गवाह नरेंद्र कोठारी ने पहले दिए गए शपथपत्र से पीछे हटकर बाद में मंदिर समिति के समर्थन में शपथपत्र दिया।
सभी पहलुओं पर विचार करते हुए हाई कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट का आदेश न्यायसंगत है और उसमें कोई त्रुटि नहीं है। इसके साथ ही, अपील खारिज कर दी गई।
