गुलाटी, दादाजी और महाशय के नाम से पहचाने जाने वाले धर्मपाल जी गुलाटी ने 98 वर्ष की उम्र में आज दुनिया को अलविदा कह दिया। संसार में बहुत कम ही लोगों का जीवन असाधारण और प्रेरणादायक होता है। धर्मपाल जी ने कुछ ऐसा ही जीवन जिया है। उनके पराक्रम की खुशबू सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि सात समंदर पार 100 से अधिक देशों में एम.डी.एच. मसालों के माध्यम से लंबे अर्से तक उनकी याद दिलाती रहेगी।
शायद किसी को विश्वास नहीं होगा कि 2016 की रिपोर्ट अनुसार बाजार में 13 हजार 200 करोड़ के मसाला बाजार में एवरेस्ट की 13 प्रतिशत हिस्सेदारी के बाद 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ ‘दादाजी’ की एम.डी.एच. कंपनी का दूसरा नंबर है। और 1500 करोड़ के व्यापार के साम्राज्य वाले गुलाटी जी पाँचवीं कक्षा भी पास नहीं थे। कंपनी से सालाना मुख्य कार्यपालन अधिकारी के वेतन बतौर 20 करोड़ की राशि लेते थे जिसमें से 90 प्रतिशत राशि दान दे देते थे।
दादाजी अपने पिताजी स्वर्गीय चुन्नीलाल चैरिटेबल ट्रस्ट के बैनर तले माता चन्नन देवी अस्पताल जिसमें 250 पलंगों की क्षमता के साथ ही झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले बच्चों के लिये चार विद्यालय और एक चलायमान अस्पताल का संचालन करते थे।
विभाजन पूर्व सियालकोट (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में चुन्नीलाल जी के घर 27 मार्च 1923 को जन्मे धर्मपाल जी की कहानी व्यक्ति के भाग्य की कहानी है कि कैसे वह अर्श से फर्श पर पहुँचकर फिर से अर्श को छू लेता है। धर्मपाल जी के पिताजी ने सन् 1919 में सियालकोट में ‘महाशियां दी हट्टी’ (एम.डी.एच.) के नाम से एक छोटी सी दुकान खोली थी इस दुकान की विशेषता यह थी यहाँ हाथ से तैयार मसालों का विक्रय किया जाता था।
चटपटा खाने के शौकीन लोगों को एम.डी.एच. के मसालों का स्वाद भाया और दुकान चल निकली। चुन्नीलाल ने अपने बेटे धर्मपाल को पढ़ाने की बहुत कोशिश की परंतु बेटे का मन पढ़ाई में नहीं लगा और उसने पाँचवी कक्षा में ही स्कूल छोडक़र पिताजी के मसालों के काम में मन लगाया। क्योंकि ईश्वर को तो उसे कहीं और लेकर जाना था।
दुर्भाग्यवश सन् 1947 में देश का विभाजन हो गया और 24 वर्षीय धर्मपाल को अपना सब कुछ छोडक़र आना पड़ा। भारत में अमृतसर के शरणार्थी शिविर में कई दिनों तक रहने के बाद वह अपने साले के साथ अमृतसर छोडक़र दिल्ली आ गये जहाँ पर भतीजी के फ्लेट में रहे।
आसमान से जमीन पर गिरे धर्मपाल ने जीविकोपार्जन के लिये एक ताँगा खरीदा और उसे चाँदनी चौक से करोलबाग तक चलाने लगे परंतु इससे उनका भरणपोषण नहीं हो पा रहा था। 24 साल के नवजवान ने अपने पैतृक व्यवसाय मसालों की दुकान खोलने का विचार किया और ताँगा चलाने से हुई कमाई से मसालों की पहली दुकान दिल्ली के करोलबाग में खोली दुकान चल निकली फिर दूसरी दुकान 1953 में चाँदनी चौक में खोली तब तक धर्मपाल जी मसाले थोक बाजार से खरीदकर लाते और बेचते थे।
सन् 1959 में उन्होंने कीर्तिनगर में जमीन खरीदकर उस पर मसालों को तैयार करवाने लगे। लक्ष्मी ने उस कर्मशील इंसान का हाथ थाम लिया और फिर एम.डी.एच. ने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। एम.डी.एच. (‘महाशियां दी हट्टी’) ने ऐसी धूम मचाई की आज दुबई और लंदन में कार्यालय के साथ 1000 डीलर है और 100 से अधिक देशों में निर्यात होता है। 62 तरह के मसालों का उत्पाद करने वाली एम.डी.एच. के 18 कारखाने हैं। यह भारतीय मसाला कंपनी अपने मसालों के लिये भारत के कर्नाटक और राजस्थान के अलावा अफगानिस्तान और ईरान में भी किसानों के साथ अनुबंध करके मसालों की खेती करवाती है।
धर्मपाल जी का बेटा इस प्रायवेट लिमिटेड कंपनी के प्रबंधन का काम देखता है। वहीं उनकी 6 बेटियां क्षेत्रवार मसालों के वितरण का कार्य देखती हैं। एम.डी.एच. के सबसे प्रसिद्ध उत्पाद देगी मिर्च, चाट मसाला और चना मसाला है जिसकी बिक्री प्रतिमाह 1 करोड़ पैकेट की है।
यू.के., यूरोप, यू.एस., कनाड़ा, दक्षिण पूर्व एशिया तक भारत का नाम रोशन करने वाले धर्मपाल जी 98 वर्ष की उम्र में भी (विगत 3 माहों को छोडक़र) बिना रूके, बिना थके कार्य करते थे। यहाँ तक कि रविवार के दिन भी वे अपने डीलरों और कारखानों का दौरा करते थे।
किसी 98 वर्षीय व्यक्ति में इतना जोश और उत्साह पाया जाना एक असाधारण बात है। अपने मसालों का खुद ही विज्ञापन करने वाले दादाजी स्प्राइट और रेडियो प्रेमी थे। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2019 में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण से उन्हें सम्मानित भी किया गया था। एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी कर्मयोगी को अग्निपथ परिवार की ओर से श्रृद्धांजलि देते हुए परमपिता से प्रार्थना है कि ऐसे महापुरुष का पुनर्जन्म यदि हो तो भारत की धरती पर ही हो।