उज्जैन, अग्निपथ। तो आखिरकार साबित हो गया। साप्ताहिक जनसुनवाई मजाक- मजाक और केवल मजाक है। जहां पर न्याय मिलने की आस में फरियादी की मौत ही हो जाती है लेकिन न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे में जनसुनवाई को मजाक ही माना जा सकता है। इसके अलावा इससे बेहतर शब्द जनसुनवाई के लिए हमारे पास नहीं है।
अग्निपथ के पाठकों को याद होगा। गत 5 जनवरी को खबर प्रकाशित की थी। थोड़ी संवेदना दिखाइए- जनसुनवाई का मजाक मत बनाइए… शीर्षक से। (देखे छायाप्रति) जिसमें गरीब- लाचार तेजसिंह पटेल की गुुहार और उनकी बदतर हालात का जिक्र किया गया था। खबर प्रकाशित होने के बाद कलेक्टर आशीषसिंह ने संज्ञान तो लिया था, मगर फरियादी तेजसिंह की न्याय मिलने से पहले ही आज मौत हो गई। उन्होंने बुधवार की शाम 5 बजे आखिरकार न्याय की आस में दम तोड़ दिया। यहां यह लिखना जरूरी है कि..वह जनसुनवाई में 3 बार यह बोल चुके थे कि मेरी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है। मुझे न्याय दिलाओ।
इसलिए मौत …
यह तस्वीर साबित करती है। फरियादी तेजसिंह किस कदर लाचार और अपाहिज थे। ऐसे में कार्रवाई के लिए उनको व परिजनों को 3 बार घट्टिया और ग्राम गुर्जर खजुरिया बुलाया गया। इधर ठंड भी जोरदार थी, नतीजा वह इस ठंड के शिकार हो गये। सोमवार को उनके दामाद रूस्तम ने अग्निपथ को फोन किया था। संवाददाता ने मंगलवार को जनसुनवाई में उनको बुलाया था, मगर वह नहीं आये। कारण..तेजसिंह की तबीयत खराब थी। बुधवार की शाम को 5 बजे करीब उनकी बेटी अनिता का फोन आया। रोते हुए यह मदद मांगी कि..तबीयत खराब है..अस्पताल की व्यवस्था करवा दीजिए। जब तक अस्पताल के लिए व्यवस्था जुटाई। तब तक खबर आ गई कि..तेजसिंह की मौत हो गई।
दोषी कौन?
न्याय की आस लिए तेजसिंह की मौत का जिम्मेदार कौन है? इस अनुत्तरित सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। देरी से मिला न्याय भी न्याय नहीं होता है। मृत फरियादी पिछले साल से जनसुनवाई में चक्कर काट रहा था। अगर उसकी गुहार उसी वक्त, बृहस्पति भवन में बैठकर, गंभीरता का आवरण ओढ़े अधिकारियों ने सुनी होती? तो आज भले ही तेजसिंह की मौत हो जाती, मगर मरने से पहले उसको न्याय मिल गया होता। इसीलिए यह भी यक्ष प्रश्न है कि..ऐसी जनसुनवाई से क्या मतलब..जहां फरियादी न्याय की आस लिए ही मर जाये।