कल समाचार पत्रों में छपी एक खबर शायद पाठकों की उपेक्षा का शिकार होकर रह गयी। कुछ वर्षों पूर्व तक अभिभावक अपने बेटे को भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, राज्य प्रशासनिक सेवा के बाद एम.बी.बी.एस. डॉक्टर और उसके बाद अभियंता बनाने का सपना संजोते थे। बाकी सभी सेवाओं का महत्व तो वर्तमान में भी बरकरार है परंतु अभियंताओं की जो दुर्गति हो रही है वह शायद आजाद हिंदुस्तान में किसी और शिक्षा की नहीं हुई होगी। आई.ए.एस. और आई.पी.एस. तो अधिकांश उन्हीं के पुत्र या पुत्री बनते हैं जिनके माता-पिता इन पदों पर होते हैं (कुछ प्रतिशत अपवादों को छोड़कर) एम.बी.बी.एस. चिकित्सक धनिक पुत्रों के ही नसीब में हैं, दाखिले के लिये चिकित्सा महाविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली दान राशि का भुगतान करना आम भारतीय के लिये संभव नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में सिर्फ अभियंता की शिक्षा ही आम आदमी की पहुँच में थी। कुछ सालों पूर्व तक पूरे देश में सीमित संख्या में अभियांत्रिकी महाविद्यालय हुआ करते थे। हमारे मध्यप्रदेश में भी बहुत कम महाविद्यालय हुआ करते थे। प्रदेश में काँग्रेस शासनकाल में विशेषकर दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को खोलने के लिये शासन द्वारा नियमों में शिथिलता और शासकीय मदद दी जाने लगी जिसके परिणामस्वरूप मध्यप्रदेश के हर जिलों में दिग्गी राजा के समर्थकों के इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गये। उस समय खुले अधिकांश अभियांत्रिकी महाविद्यालय पूर्व काँग्रेसी मंत्रियों या नेताओं के हैं। दिग्गी राजा के कार्यकाल में स्थापित अधिकांश महाविद्यालयों में उनकी भागीदारी की भी खबरें है। मालवा में ही स्वर्गीय सुभाष जी यादव (खरगोन), पूर्व मंत्री सुभाष सोजतिया (इंदौर), नरेन्द्र नाहटा (मंदसौर), श्री महावीर प्रसाद वशिष्ठ (उज्जैन) के महाविद्यालय हैं।
कुकुरमुत्तों की तरह अचानक उग आये महाविद्यालयों ने पूरे भारत की तरह मध्यप्रदेश में भी इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़-सी ला दी। वर्तमान में 7.30 करोड़ की आबादी वाले मध्यप्रदेश में ही 151 अभियांत्रिकी महाविद्यालय है जो प्रतिवर्ष 55600 छात्रों को अभियंता बनाकर उगलते हैं, बेरोजगारी का दंश झेल रहे देश और मध्यप्रदेश में इतने स्नातक अभियंताओं का क्या होगा? मैं बड़ी क्षमा के साथ यह लिख रहा हूँ कि संख्या तो बढ़ गई परंतु गुणवत्ता का हृास हो गया। प्रतिवर्ष निकलने वाले अभियंताओं में से अधिकतर गुणवत्ताहीन होते हैं। मुश्किल से 10 प्रतिशत जो ‘क्रीमÓ होती है उसे बहुराष्ट्रीय कंपनी ले लेती हैं या फिर वह स्नातक अभियंता प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेकर अपना कैरियर बनाते हैं। बाकी शेष लगभग 50000 अभियंता बेरोजगारों की भीड़ में शामिल होकर गुम हो जाते हैं। विडम्बना यह है कि कई मामलों में तो निर्धन माता-पिता शैक्षणिक ऋण बैंकों से लेकर अपने बच्चों को अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में पढ़ाई करवाते हैं और भविष्य का यह सपना बुनते हैं कि अभियंता बनते ही उसे 40-50 हजार प्रतिमाह की नौकरी आसानी से मिल जायेगी और हमारा बेटा हमारे बुढ़ापे का सहारा भी बनेगा और बचत करके हमारे द्वारा बैंक से लिया गया शैक्षणिक ऋण भी चुकता कर देगा। परंतु पढ़ाई पूरी होने के बाद बेटा भी भारत के करोड़ों बेरोजगारों की भीड़ में खो जाता है और मात्र 10 हजार रुपये महीने की नौकरी के लिये दर-दर ठोकरें खाता है तो माता-पिता पर आसमान टूट पड़ता है। एक ओर तो वह बैंक का कर्जदार, दूसरी ओर बेटा या बेटी बेरोजगार। वर्तमान में बेरोजगार अभियंता मात्र 5 हजार की नौकरी के लिये भटकते आसानी से देखे जा सकते हैं जबकि मजदूरी करने वाला मजदूर कम से कम 300 रुपये रोज कमाता है। शायद इसी विडंबना के कारण प्रदेश के 151 कॉलेजों में 48 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में एक भी छात्र ने प्रवेश नहीं लिया है। प्रथम चरण की काउंसलिंग में ज्यादातर महाविद्यालयों में 8-9 छात्रों के ही प्रवेश हुए हैं और दो दर्जन महाविद्यालयों में इक्का-दुक्का। 55600 रिक्त सीटों के विरुद्ध 16933 सीटेंं आवंटित की गई थी, जिसमें से मात्र 10153 ने ही दाखिला लिया। भोपाल के 21 महाविद्यालय और इंदौर के 7 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में तो एक भी प्रवेश नहीं होना सोचनीय और चिंता का विषय है शासन और समाज दोनों के लिये।
-अर्जुनसिंह चंदेल