आज से ठीक 34 वर्ष पूर्व हमारे अग्निपथ के संस्थापक देश के मूर्धन्य पत्रकार, पूज्य पिताजी ठाकुर शिवप्रताप सिंह जी ने अपने दिव्य स्वप्न को साकार करते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में ‘दैनिक अग्निपथ’ को इस धरा पर रोपण करने का कार्य किया था। किसी वैश्य कुल में जन्म ना लेने और रगों में राजपूती खून के कारण दैनिक समाचार पत्र का संचालन कार्य बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण था।
स्त्री प्रसव पूर्व 9 माह की पीड़ा झेलती है परंतु दैनिक समाचार पत्र को निकालना प्रतिदिन की प्रसव पीड़ा झेलना जैसा है। सीमित संसाधन और अर्थ की कमी के कारण परिस्थितियां विषम थी परंतु हम सब भाइयों ने ठान रखा था कि पिताजी के सपने को साकार करके रहेंगे चाहे कितनी ही बाधाएं क्यों ना आये। बैंकों से वित्तीय मदद, घर की महिलाओं के जेवर तक गिरवी रखा गये।
कहते है ना हिम्मतवालों की खुदा भी मदद करता है। इस विक्रमादित्य की नगरी में पिताजी की प्रतिष्ठा, चंदेल बंधुओं का प्यार, शहर के नागरिकों का प्रेम, दूर-दराज क्षेत्र में पूर्व (अग्निबाण के समय) के साथी संवाददाता उनका परिश्रम, मालवा के असंख्य पाठकों का पूज्य पिताजी की लेखनी से स्नेह यह सब ‘अग्निपथ’ के संचालन में आ रही बाधाओं के बीच ढ़ाल बनकर खड़े हो गये और ‘अग्निपथ’ की अविरल यात्रा शुरू हो गयी।
जब अग्निपथ का जन्म हुआ था तब मेरी उम्र 27 वर्ष 9 माह थी और मेरे बड़े बेटे की उम्र मात्र 1 वर्ष 5 माह थी और अब मैं भी दादा और बेटा पिता बन चुका है। लब्बो लबाब यह है कि इस बेशकीमती जिंदगी के 34 साल ‘अग्निपथ’ पर ही गुजर गये यही स्थिति अग्रज अनिल भाई साहब की भी है उनके जीवन का भी बहुमूल्य समय अग्निपथ रूपी पौधे को पल्लवित करने में ही लग गया।
हम दोनों भाई जवानी से कब वरिष्ठ नागरिकों की श्रेणी में आ गये पता ही नहीं चला। खैर, समाचार पत्रों की दुनिया का दस्तूर ही यही है कि इसमें पीढिय़ां खप जाती हैं, चंदेल परिवार की भी तीसरी पीढ़ी पत्रकारिता धर्म की ध्वजा को थामने में संलग्न हो गयी है।
सीलन भरे 7×18 फुट वाले किराये के कमरे और 50 हजार मूल्य की प्रिन्टिग मशीन से चालू हुयी अग्निपथ की यात्रा सिलैण्डर मशीन, शीट फेड मशीन से होती हुयी आज अत्याधुनिक वेब ऑफसेट मशीन तक आ पहुँची है। 1700 रुपये मासिक किराये वाला परिसर 28×80 फीट की भूतल+ प्रथम तल+ द्वितीय तल सुसज्जित कार्यालय सहित मालिकाना हक का हो चुका है। अग्निपथ परिवार इस बात पर गर्व कर सकता है कि अग्निपथ कार्यालय उज्जैन में सर्वश्रेष्ठ है।
मित्रों पर ‘अग्निपथ’ कटंकापूर्ण है। समय ने समय-समय पर कई अघात दिये। निरंकुश सत्ताधारियों और अभिमानी प्रशासनिक अधिकारियों से पंगे होते रहे, जिनसे दोस्ती हुयी तो बहुत गाढ़ी हुयी जो पारिवारिक मित्रता के स्तर तक पहुँची। शरीर में राजपूती खून और पिताजी जी द्वारा दिये गये संस्कार किसी भी मंत्री-संतरी के आगे झुकने की इजाजत नहीं देते। स्वाभिमान की कीमत पर शासकीय कार्यालयों और राजनेताओं की चौखटों पर सजदा करना पूरी तरह से प्रतिबंधित है।
पत्रकारिता धर्म की रक्षा करना ही ‘अग्निपथ’ का मूल मंत्र है। आज के इस अवसर पर ‘अग्निपथ’ पर चल रहे मेरे समस्त साथियों, मेरे परिजनों से बढक़र संवाददाताओं, असंख्य पाठकों, विज्ञापनदाताओं और उन ज्ञात-अज्ञात लोगों को जिन्होंने अग्निपथ को इस मुकाम पर पहुँचाया है को बधाई देते हुए सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।