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अर्जुन सिंह चंदेल
चंडीगढ़-शिमला हाइवे से हटते ही प्राकृतिक सुंदरता नजर आने लगी, टेढ़े-मेढ़े रास्ते के दोनों ओर अखरोट, ओक, विले और रोडोडेट्रोन के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की अनवरत श्रृंखला चालू हो गयी जो देखने से मन को सकून मिल रहा था।
देवभूमि की वह सुबह मानस पटल पर अंकित होती चली जा रही थी। फितरती इंसान ने पहाड़ों का सीना चीर-चीर कर वहाँ खुद के रहने के लिये मकान तो बनाये ही, जीविकोपार्जन के लिये होटलों का बाजार भी खड़ा कर दिया। पहाड़ों पर रोजगार का एकमात्र जरिया पर्यटन ही है। सुबह की मखमली धूप अब गर्मी देने लगी थी गरम कपड़े कष्ट देने लगे थे। हिमाचल का छोटा शिमला कही जाने वाली ‘कसौली’ बस थोड़ी ही दूर रह गयी थी। गढऱवल कस्बे से ट्रेम्पो ट्रेवलर ने दायी ओर मुडक़र हमारे रूकने के स्थान और अधिक नजदीक ला दिया।
वर्ष 2011 की जनसंख्या अनुसार कसौली की जनसंख्या मात्र 3855 थी। समुद्र तल से 5900 फीट ऊँचाई पर स्थित इस हिल स्टेशन को अँग्रेजों ने बसाया था। हम सभी के चेहरे खिल उठे जब हमें हमारे मीट स्थान ‘होटल द चाबल’ का बोर्ड दिखायी दिया। सुबह लगभग 9 बजे के करीब 26 घंटों की यात्रा के बाद हम हमारे गंतव्य स्थान पर पहुँच ही गये थे।
पहाड़ों में बहुत ही सुंदर होटल के मालिक कुलदीप सिंह जी भी उतने ही सुंदर थे जितनी उनकी होटल। लगभग 6 फीट ऊँचाई वाले जाति से राजपूत कुलदीप जी के व्यक्तित्व में भी चुंबकीय जादू मौजूद था जो हमें उनकी ओर खींच रहा था। पेशे से ठेकेदार कुलदीप जी ने बहुत ही सुंदर 21 कमरों वाले होटल के निर्माण में अपना सर्वश्रेष्ठ लगा दिया है। टीक की लकड़ी का बहुत ही अच्छा उपयोग किया गया है।
चाबल होटल के सभी कर्मचारियों का व्यवहार भी आत्मीय था जिनमें से अधिकांश हिमाचल के ही निवासी थे। कुलदीप जी जागीरदार घराने से ताल्लुक रखते हैं होटल के नजदीक ही उनका गाँव है जिसका नाम चाबल है, इसी कारण उन्होंने अपने होटल का नाम अपने गाँव के नाम पर ‘होटल द चाबल’ रखा है जो खुद उस मार्ग का आईकान है।
राजपूत होने का पता चलने पर हमारा खून तो 50 ग्राम बढऩा ही था, कुँवर कुलदीप सिंह जी की पत्नी भी चौहान राजपूत है। कुलदीप जी के पुरखे राजस्थान में निवास करते थे। हाँ खून तो बढ़ा ही साथ ही सीना भी 54 इंच का हो गया जब यह मालूम हुआ कि कुलदीप जी भी ‘घुमक्कड़ी दिल से’ ग्रुप के सक्रिय सदस्य हैं और उनके सहयोग से यह मिलन समारोह ‘कसौली’ में रखा गया है। मिलन समारोह में देश भर से साथियों का सपरिवार आने का सिलसिला चालू हो गया था, उज्जैन के हम सभी 9 साथी भी अपने-अपने कमरों की चाभी लेकर कमरों में चल दिये।
दुर्भाग्यवश एडमिनों से गहरे ताल्लुक न होने की वजह से फ्रंट व्यू वाले कमरें हमें अलाट ना हो सके, खैर कमरे बहुत साफ सुंदर, वातानुकूलित, सर्वसुविधायुक्त थे एक कमरे में तीन लोगों के रूकने की व्यवस्था थी। स्नान आदि करके भूतल पर आ गये जहाँ पोहे-बिस्कुट के साथ चाय की व्यवस्था थी। पोहों में मसाला तो बहुत था पर वह उज्जैन जैसा स्वाद नहीं दे पा रहे थे।
(शेष कल)