(चित्रः दिलीप चौहान)
अर्जुन सिंह चंदेल
इस संसार में आये हर मनुष्य के जीवन में कैलेण्डर की कुछ तारीखें वह ताउम्र भूल नहीं पाता है, इनमें से कुछ तो व्यक्ति के जीवन में खुशियां लाने वाली होती है और कुछ उसकी जिंदगी में गहरे घाव और टीस देने वाली। मेरे 62 साल के जीवन में जख्म देने वाली कैलेण्डर की तमाम तारीखों में एक और मनहूस तारीख विधाता ने जोड़ दी है।
कहाँ से और कैसे शुरुआत करूँ उसके मेरे साथ जुडऩे और समय से पहले बिछुडऩे की कहानी… इसी को लिखने में ऊहापोह के बीच आज 34 दिन गुजर गये। उसके बारे मेें कुछ कहने के लिए कलम चलने को तैयार ही नहीं हो रही थी। हिम्मत और साहस के साथ आज बैठा हूँ लिखने।
मैं बात कर रहा हूँ बीते 1 अप्रैल को दुनिया से अचानक रूखसत करने वाले दिलीप चौहान की, जो मेरा अजीज मित्र, हमसफर, हमकदम, अनुज, कत्र्तव्यनिष्ठ, समर्पित, हनुमान की तरह सेवा करने वाला एक बहुत ही सामान्य इंसान था।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में देवेभो कर्मचारी था वह. आज से 24 वर्ष पूर्व पार्षद के चुनाव में उसका छोटा भाई मेरे खिलाफ चुनाव मैदान में था। एक तरह से उसे मेरा राजनैतिक शुत्र भी कहा जा सकता है।
सौभाग्य से जिस विभाग में वह पदस्थ था उसी विभाग का मुझे प्रभारी बना दिया गया। इस कारण वह मेरे नजदीक आया और धीरे-धीरे इतने करीब होता चला गया कि वह मेरी धडक़नों और सांसों में बसता चला गया।
हिंदू धर्म की मान्यता है ना कि जहाँ बसाने वाला कुछ संबंध पहले ही तय कर देता है जो शायद पूर्व जन्मों के छूटे हुए अधूरे रिश्ते रहते हैं जो इस जन्म में खून के रिश्तों से भी बढक़र हो जाते हैं। शायद दिलीप से मेरा कुछ पूर्वजन्मों का ही संबंध रहा होगा।
मुझे याद नहीं है कि मुझसे जुडऩे के बाद मेरे द्वारा कही गयी कोई बात उसने टाली हो, एक पुत्र से भी कहीं अधिक सम्मान और आदर उसने जब तक जीवित रहा, तब तक दिया।
हमेशा सोचता था कि जिस दिन इस दुनिया को अलविद कहूँगा उस दिन मेरी अर्थी उठाने पर लगने वाले चार कंधों में से एक कंधा उसका भी होगा। पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। 31 मार्च 2024 की रात हम समाधान ग्रुप के साथी देर रात को इंदौर से एक कार्यक्रम से लौटे थे। मैंने उनसे कहा था दिलीप गाड़ी तुम चलाओगे, मेरे आदेश को सर आँखों पर लेकर गाड़ी चलाकर वह हम सभी साथियों को सुरक्षित घर लाया। रास्ते में हम सबको तो झपकी भी लग गयी पर उसने अपने कत्र्तव्य को निभाया।
घर पहुँचकर 1 अप्रैल की अलसुबह (31 मार्च- 1 अप्रैल की दरयमियानी रात) दिलीप ने अपने पिताजी की 19वीं पुण्यतिथि पर उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि की पोस्ट फेसबुक पर डाली। एक अजीब संजोग रहा कि 1 अप्रैल 2024 से ठीक 19 वर्ष पूर्व 1 अप्रैल 2005 को भी शीतला सप्तमी थी। 2024 की तरह दिलीप के पिताजी को भी उसी दिनांक उसी तिथि और ठीक उसी समय 3 बजे ह्रदयघात हुआ और नियति नियंता ने सदा-सदा के लिये उसे हमसे छीन लिया।
जिसने भी सुबह यह खबर सुनी वह हतप्रभ हो गया, किसी ने 1 अप्रैल की खबर समझी पर सत्य को कैसे नकारा जा सकता है। नि:शब्द और निस्चेतन हो गये थे हम सब जिसके साथ कुछ घंटों पहले तक हम थे, वह जाबांज साथी सदा-सदा के लिये हम सबको रोता बिलखता छोडक़र जा चुका था। कुछ तारीखें जख्म ताजा कर देती है, शायद आने वाली हर 1 अप्रैल ऐसी ही होगी।
बड़ी मुश्किल से इतने दिनों बाद अपनी शब्दांजलि प्यारे दोस्त को दे पा रहा हूँं। क्योंकि मानसिक रूप से उसके ना होने को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ। फिर भी इन शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ कि ‘मुझे तेरी दूरी का गम हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे पास है’।