उज्जैन, अग्निपथ। जीवन में मनुष्य आनंद प्राप्ति की प्रत्याशा रखता है। आनंद के भारतीय वाङमय में साहित्यिक, दार्शनिक, भौतिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आदि अनेक आयाम हैं। परमात्मा का एक स्वरूप सतचित् और आनंद बताया गया है। आनंद के अवरोधक तत्त्व, क्रोध, लोभ, मोह एवं ईष्र्या को हटाने से आनंद मिलता है।
उक्त उद्गार मुख्य अतिथि डॉ. मोहन गुप्त, पूर्व कुलपति, उज्जैन ने भारतीय साँस्कृतिक विरासत में जीवन आनंद के आयाम विषय पर आयोजित परिचर्चा में व्यक्त किये। अतिथि वक्ता उपाचार्य डॉ तुलसीदास परौहा ने कहा कि भारतीय सांस्कृतिक विरासत में आनन्द की सविस्तार विवरण उपलब्ध है।
अतिथि वक्ता पूर्व कुलपति आचार्य बालकृष्ण शर्मा ने सारगर्भित उद्बोधन में कहा कि लौकिक सुख आंनद नहीं है, बल्कि ब्रह्मानंद को प्राप्त करना आनंद है। सच्चिदानंद स्वरूप परम ब्रह्म है। आनंद ब्रह्म का साक्षात रूप है। स्वागत भाषण संस्थान के निदेशक प्रोफेसर यतीन्द्रसिंह सिसोदिया ने दिया।
आचार्य शैलेंद्र पाराशर ने कहा कि भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत में आनन्द प्राप्ति के अनेक मूल्य, मार्ग, सूत्र एवं साधना पद्धतियाँ सविस्तार बताई गई हैं। मनुष्य को बुद्धि, विवेक और अंतर्रात्मा के गहन स्तरों की अभिव्यक्तियाँ, उसे सुसंस्कृत एवं आनंदित बने रहने का बोध कराती है। भौतिक साधनों से आनंद नहीं मिलता है, उसकी अनुभूति आत्मा के स्तर पर होती है।
प्रोफेसर गोपालकृष्ण शर्मा ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि वर्तमान समय में मनुष्य को अपने जीवन में अनेक नवीन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जिससे जीवन आनंद की अनुभूति प्रभावित हो रही है। इस अवसर पर शोधार्थी, विद्यार्थी एवं प्रबुद्धजन उपस्थित थे। संचालन संगोष्ठी के समन्वयक डॉ. संतोष पंडय़ा एवं आभार प्रदर्शन संयोजक आचार्य शैलेंद्र पाराशर ने किया।