अर्जुन सिंह चंदेल
(कल से आगे)
दिल बाग-बाग हो रहा था हमारे कदम दुनिया के एकमात्र हिंदु राष्ट्र नेपाल की धरती पर पडऩे वाले थे। बेरिकेड्स लगे हुए थे नेपाल सेना के जवान मुस्तैदी से तैनात थे। हमारे सारथी ने गाड़ी पहले ही रोक दी और वाहन के कागजात लेकर उनकी जाँच पूर्ण करवायी। हमसे पूछा गया कब तक रहना है नेपाल में, हमारे द्वारा 22 मई तक का बताने पर कहा गया कि 400/- रुपये प्रतिदिन का भंसार (नेपाल का टेक्स) लगेगा। 8 दिन का 3200/- भारतीय रुपये में अदा किये गये।
औपचारिकतावश पीछे डिक्की में रखे बेग की सरही तौर पर चेकिंग की गयी और नेपाल के द्वार हमारे लिये खोल दिये गये। दिल को सुकून मिला, हमें तो बताया गया था एक-एक सामान की चेकिंग की जायेगी। औपचारिकताओं में कम से कम दो घंटे लगेंगे पर हम तो 20 मिनट में ही फ्री हो गये।
मुश्किल से 200 मीटर ही आगे बढ़े थे कि एक और बेरियर आ गया। बंदूक से लैस नेपाली सेना के जवान ने हमारी गाड़ी को रोक लिया ड्रायवर को बुलाया भंसार के कागज चेक किये और गाड़ी को सूंघने लगा हम समझ गये इसमें हमारे भारत के यातायात पुलिस की आत्म प्रवेश कर गयी है। ड्रायवर को इशारे से गाड़ी के पीछे बुलाया और गाड़ी के ऊपर रखे सूटकेस चेक ना करने के एवज में 100/- भारतीय रुपये झटक लिये।
हमारा सारथी बोला सर इसे रुपये नहीं दिये तो पूरा सामान नीचे उतरवायेगा और हमारा एक घंटा बर्बाद कर देगा। अपने राम ने सोचा छह लोग हैं 100 रुपये दिये तो प्रत्येक के हिस्से में 17-17 ही तो पड़ेंगे, इसे दो और अपना पिंड छुड़ाओ। रुपये देते ही नेपाली सेना के जवान ने आगे बढऩे का सिग्नल दे दिया।
हम सोच रहे थे भ्रष्टाचार की दीमक मोदी जी और हमारे भारत में ही नहीं है यह तो विश्वव्यापी नासूर है। पर इस बात से हतप्रभ थे कि मात्र 100 रुपयों के लालच में नेपाली सेना के जवान ने अपना जमीर और ईमान बेच दिया। यदि हमारे सूटकेसों में आरडीएक्स या अन्य कोई आपत्तिजनक सामग्री होती हो क्या होता? उस सैनिक ने तुच्छ धन के लिये अपने देश की अस्मिता दॉव पर लगा दी, कहाँ जाकर रुकेगी यह हैवानियत?
नौतनवा बार्डर से हमारी मंजिल लुम्बिनी 87 किलोमीटर दूर थी। सडक़ें ठीक-ठाक थी। आठ बजे के लगभग हम 2000 वर्ष पुराने बौद्ध तीर्थ केन्द्र में प्रवेश कर चुके थे। इस पुरातन शहर को बहुत बड़े तीर्थ के रूप में विकसित किया जा रहा है। जिस तरह हिन्दु धर्माविलम्बियों के लिये चार धाम और मुस्लिमों के लिये मक्का मदीना है उसी तरह बौद्ध अनुयायियों के लिये लुम्बिनी पवित्र स्थान है।
टीम के एक साथी ने नयी पीढ़ी के सहयोग से होटल ओसियन बुक कर रखी थी। पूछते-पूछते पहुँच ही गये होटल के स्वागत कक्ष तक घड़ी की सूइयां रात्रि के आठ बजकर बीस मिनट बता रही थी। होटल प्रबंधक ने बताया कि सर लुम्बिनि 9:30 पर बंद हो जाता है रात्रि भोजन का निर्णय शीघ्र लीजिये।
कुछ साथी चटपटा जायकेदार खाना चाहते थे जोश में आकर बोले हम अभी खाना पैक कराकर लाते हैं थोड़ी देर बाद निराश होकर वापस लौट आये और जहाँ रूके थे वहीं भोजन का आर्डर दिया। होटल के रसोइये ने पहले ही बता दिया था यहाँ गेहूँ के आटे की चपाती नहीं मिलेगी सिर्फ चावल से ही पेट भरना होगा।
खैर मरता क्या ना करता होटल के रूम में बैठकर सभी ने तरल पदार्थ से अपने गले गीले किये और यात्रा की थकान को मिटाने का प्रयास किया। नीचे भोजनालय में भोजन किया जिसमें दाल, दो तरह की सब्जी थी। उत्कृष्ट क्वालिटी के नेपाली चावल और पालक की लाजवाब सब्जी ने मजा ला दिया। जी भरकर खाया।
हाँ एक बात बताना भूल गया चमक-दमक से दूर नेपाल के इस क्षेत्र में प्रवेश के बाद से ही उत्तरप्रदेश-बिहार की तरह गरीबी का दंश महसूस किया जा सकता है। पर हिंदु राष्ट्र नेपाल के लुम्बिनी में भी मस्जिद बनी हुयी थी जो साम्प्रदायिक सौहार्द्र बता रही थी। अब सोते हैं। …
(शेष अगले अंक में)