अर्जुनसिंह चंदेल
गतांक से आगे
भूटान यात्रा और पारो में आज हमारा अंतिम दिन था तारीख थी 11 जनवरी। 6 से 11 जनवरी तक हमारी 6 रातें पूर्ण हो जानी थी 12 जनवरी को भारत लौटना था। वापसी की टिकट बागडोगरा एयरपोर्ट से इंदौर की 16 जनवरी को शाम 4:30 की थी। हमारे पास 4 रातें शेष थी उन्हें भारत में कहाँ बिताया जाय यह प्रश्न खड़ा हो गया।
रात को सभी साथी बैठे विचार मंथन हुआ और यह तय हुआ कि दो रातें गंगटोक में बितायी जाये और चीन की सीमा पर स्थित नाथूला ढर्रा देखा जाय और दो रातें यानि 14-15 जनवरी को दार्जिलिंग घूमा जाय और 16 को बागडोगरा पहुँचकर इंदौर के लिये फ्लाइट पकड़ी जाय।
भूटानी टूर आपरेटर से पैकेज मंगवाया जो हमें महंगा लगा हमने गुगल की मदद से 3-4 होटलों के नंबर निकाले फोन घुमाया एक होटल पसंद आया उससे बात करके रूमों के फोटो मंगवाये जो हम सभी को पसंद आये बातचीत और मोलभाव करके 12-13 जनवरी के लिये तीन रूम ब़ुक कर दिये। होटल का टेरिफ 4800 रुपये प्रतिदिन था परंतु महाकाल की कृपा और हमारे सौभाग्य से हमारा काम काफी किफायती दर पर हो गया।
चैन की साँस ली आगे दो दिन की जुगाड़ गंगटोक जाकर करेंगे यह तय हुआ और गंगटोक के ही होटल वाले मित्र की मदद से जयगाँव से गंगटोक जाने के लिये इनोवा गाड़ी भी 5000 में बुक करवा दी। काम पक्का हो गया था। रात को अच्छी नींद लेकर सुबह नाश्ते के बाद पारो के बचे हुए स्थान देखने निकल पड़े। गाड़ी का ड्रायवर चेलेला पास (दर्रा) दिखाने के मूड में नहीं था रात को उसने कह दिया था कि बर्फबारी के कारण रास्ता बंद है, सुबह देखते हैं।
सुबह हमने भी हमारे सूत्रों से पता किया तो जानकारी मिली की सचमुच चेलेला पास पारो से 36 किलोमीटर पारो और हा राजमार्ग पर स्थित है। समुद्र तल से चेलेला दर्रे की ऊँचाई 3988 मीटर मतलब 13 हजार 83 फीट है। हिमालय पर्वत श्रृंखला में स्थित चेलेला पास में सर्दी के दिनों में बर्फ और हिमस्खलन का खतरा बना रहता है।
पारो का यह एक दर्शनीय स्थल है जहाँ पर बहुत तेज हवाएँ और कड़ाके की ठंड पड़ती है। ऑक्सीजन की कमी के कारण साँस फूलने की समस्या आम बात है। लगभग 9:45 बजे हम निकल पड़े चेलेला पास को देखने। जैसे ही पारो शहर पीछे छूट सर्दी अपना रंग दिखाने लगी। पहाड़ पर चढ़ायी चालू हो गयी थी 10 किलोमीटर बाद मार्ग के दोनों और जमी हुयी बर्फ नजर आने लगी थी पहाड़ों से नीचे आने वाला पानी भी कई जगह जमा हुआ नजर आया।
रास्ते में भूटान सरकार के सडक़ पर से बर्फ हटाने वाली मशीनरी भी नजर आयी। दोनों ओर हरियाली और बर्फ मन और आत्मा दोनों को सकून दे रही थी। बीच में ड्रायवर ने लघुशंका के लिये एक रेस्टोरेन्ट पर गाड़ी रोक दी बिना रेट पूछ ही 6 चाय का आर्डर दे दिया गया। लगभग 15 मिनट बाद रेस्टोरेन्ट की बाला एक टे्र में 10-12 बिस्कुट और 6 चाय लेकर आयी, सबने चाय पी जब बिल पूछा तो एक चाय के 80 रुपये 6 चाय के 480 रुपये का बिल सामने आ गया। माथा पीट लिया 20 की चाय के 80 रुपये देना पड़े। भूटान यात्रा का सबसे खराब अनुभव था और सीख भी थी कि पहले भाव पूछो फिर आर्डर दो।
खैर लगभग १२ बजे के करीब हम पहुँच ही गये चेलेला दर्रा। वहाँ लगे रंगे-बिरंगे झंडे जिन पर धार्मिक प्राथनाएँ लिखी हुयी थी वह तेज हवा में लहरा रहे थे। बहुत सुंदर नजारा था और भी पर्यटक वहाँ मौजूद थे। ढेर सारे फोटो लेकर, एक घंटा रुकने के बाद हम वापस लौट चले पारो शहर की ओर। 3 बजे के करीब वापस आ गये, पारो शहर में ही एक भारतीय खाने का रेस्टोरेन्ट था खाना वहीं खाया परंतु रेस्टोरेन्ट के कर्मचारियों का व्यवहार बहुत गंदा था।
अच्छा अनुभव नहीं रहा। भोजन पश्चात ड्रायवर हमें पारो के आखरी पाइंट ‘टाईगर्स नेस्ट मठ’ बताने ले चला जो पारो शहर से 10 किलोमीटर दूर है। गाईड ने दूर पहाड़ी पर स्थित एक भवन को दिखाते हुए बताया कि वहाँ दो किलोमीटर की पैदल चढ़ायी है क्या आप जाना चाहेंगे हम सभी ने मना किया। ‘टाईगर्स नेस्ट मठ’ को तकत्संग मठ भी कहा जाता है। यह एक बौद्ध मठ है जो कि हिमालय के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।
बहुमंजिला यह मठ 3120 मीटर (10 हजार फीट) ऊँचाई पर बना है। किंवदंतियों के अनुसार भूटान के धार्मिक ग्रंथ नामयार के अनुसार बौद्ध भिक्षुक पझसंभव (गुरु रिनपोहे) एक बाधिन की पीठ पर सवार होकर इस स्थान पर उडक़र आये थे और राक्षस का वध किया। एक अन्य किंवदंती है कि एक सम्राट की पूर्व पत्नी स्वेच्छा से तिब्बत में गुरु रिनपाहे (पझसंभव) की शिष्या बन गयी थी उसने खुद को एक बाघिन में बदल लिया और गुरु को तिब्बत से भूटान के पारो में इस स्थान पर ले आयी। दूर से ही इस पवित्र स्थान को नमस्कार किया। दो घंटे पैदल ही पारो का बाजार घूमा और लौट आये होटल।
सुबह 6 बजे भूटान के पारो से रवाना होकर भारत की सीमा जयगांव पहुँचना था। होटल वाले से ब्रेकफास्ट पेक करने का अनुरोध किया भला आदमी था मान गया। सुबह 7 बजे ब्रेकफास्ट लेकर पारो को अलविदा कहकर निकल पड़े अपने वतन को।
शेष कल