हारे को तिनके का सहारा, जीते को सब पहनाते सेहरा राजनीति में सब कुछ जायज है इस उक्ति से समझ आता है। कुछ समय बाद ही त्रि-स्तरीय पंचायती राज चुनाव होना है। अंचल में दोनों प्रमुख दलों से जुड़े जमीनी कार्यकर्ताओं, नेताओं ने अपने स्तर से त्रि-स्तरीय चुनाव की रणनीति बनाना शुरू कर दी। अंदर खाने में बैठकों का दौर भी शुरू हो गया।
हालांकि यह चुनाव दलगत आधार पर नहीं होंगे किन्तु दोनों ही दलों की प्रत्यक्ष छाया इस त्रि-स्तरीय पंचायती राज चुनाव में दिखाई देगी। चुनाव पूर्व की प्रशासनिक कर्रवाई पूर्ण होकर घोषणा होना शेष है। जिले की राजनीति में 90 के दशक में सिर्फ कांग्रेस का परचम था। तब कांग्रेस जिले में दो भूरियाओं के मध्य बंटी हुई थी। एक धड़ा स्वर्गीय सांसद दिलीप सिंह भूरिया का था तो दूसरा वर्तमान में झाबुआ विधायक कांतिलाल भूरिया का।
राजनीति ने करवट ली और दिलीप सिंह भूरिया ने कांग्रेस का हाथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा को कद्दावर आदिवासी नेता की तलाश थी। वह दिलीप सिंह भूरिया के भाजपा में आने से पूरी हुई।
हालांकि भारतीय जनता पार्टी में आने के बाद भूरिया को हार का सामना करना पड़ा पर भाजपा ने उन्हें शीर्ष स्तर की राजनीति में कांग्रेस के गढ़ को भेदने बनाए रखा और भाजपा को सफलता भी मिली। एक भूरिया के भाजपा में जाने के बाद कांग्रेस में कांतिलाल भूरिया का एक तरफा वर्चस्व हो गया।
कांतिलाल भूरिया केंद्रीय मंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष बने और बाद में भाजपाई भूरिया से राजनीतिक जीवन में पहली बार हार का सामना किया। बाद में भाजपा के गुमान सिह डामोर से लोकसभा चुनाव हारे और फिर कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद कांतिलाल भूरिया ने विधानसभा उपचुनाव में हार का बदला गुमान सिंह से लिया।
गुमानसिंह डामोर ने लोकसभा चुनाव में भूरिया को हराया व बाद में विधानसभा चुनाव भूरिया के डॉक्टर बेटे विक्रांत को भी हार का मजा पहली बार में ही चखा दिया। वर्तमान में प्रदेश में भाजपा सरकार है, कांग्रेस विपक्ष में है। कांग्रेस में कद्दावर नेता कांतिलाल भूरिया अब भी क्षत्रप बने हुए तो भाजपा जो कभी झबुआ के नाका, बाड़ा में बंटी थी से निकल कर विभिन्न गुटों में उलझने लगी।
भाजपा, कांग्रेस दोनों दलों के अदने, और अंतिम पायदान के कर्मठ कार्यकर्ता वर्षों बाद भी सत्ता, संगठन की मुख्य धारा में शामिल होने बैनर, झंडे उठाने से लेकर दरिया उठाने से आगे नहीं बढ़ पा रहे। कारण कांग्रेस का कुनबा अपनो में ही उलझा हुआ है। संगठन स्तर पर भले ही कांग्रेस गुटबाजी से परे है किंतु अधिकांश कांग्रेसी कांतिलाल भूरिया से नाराज होकर घर बैठे हंै।
कांग्रेस की विडंबना यह कि उसने कोई नेता बनाया ही नहीं या यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं की भूरियावाद ने जिले की कांग्रेस में जिले से आगे किसी को बढऩे नहीं दिया। यदा कदा कोई बढ़ भी गया तो उसके पर कतर दिए गए।
इधर 2003 से प्रदेश में आई भारतीय जनता पार्टी 10 वर्षों तक तो संगठन और मातृ संस्था के निर्देशों व नियमों का पालन कर चलती रही परन्तु बाद में भाजपा भी कांग्रेस की राह चल पड़ी। अब स्थिति यह हो गयी कि जिले में वैसे भाजपा कई गुटों में बंट गयी।
भाजपा में सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी गुमान सिंह डामर का आगमन और टिकट मिली उसके बाद भाजपा पूरी तरह केडर बेस पार्टी से भटक गई। राजनीति के जानकारों का मानना है कि गुमान सिंह के उड़ते राजनैतिक पर काटने के उद्देश्य से भाजपा ने संगठन विस्तार में थांदला के पूर्व विधायक कलसिंह भाभर को अनुसूचित जनजाति का प्रदेशाध्यक्ष बनाया। जानकारों का यह भी मानना है कि भाभर को आगामी लोकसभा चुनाव लड़वाने की रणनीति का हिस्सा है। भाबर के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद उनके विरोधी भी मुखर होने लगे और भाभर द्वारा पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव लडऩे की बात फिर करने लगे। भाजपाई अब भाभर और डामर जैसे राजनीति के पाटों में पिसते नजर आ रहे हैं।
सांसद डामर ने भाभर के घोर विरोधी को संसद प्रतिनिधि बना कर ऊपर उठाने का प्रयास किया तो भाभर ने गत दिनों मेघनगर में आयोजित एक शासकीय आयोजन जो सांसद के नहीं आने के चलते निरस्त किया गया में नाराजगी जाहिर कर उजागर कर दी। कुल मिला कर कांग्रेस कुनबा अपनो में उलझ रहा तो भजपाई पिस रहे भाभर, डामर के राजनीतिक दाव पेच में। परिणाम पंचायत राज चुनाव से ही सामने आएगा।