सुसनेर, अग्निपथ। मुनि मौन सागर जी ससंघ का चातुर्मास सुसनेर नगर में सादगी, तपस्या और त्याग की भावना के साथ संपन्न हो गया है। रविवार को त्रिमुर्ति मंदिर में आयोजित पिच्छी परिवर्तन कार्यक्रम एवं कलश वितरण के साथ इस चातुर्मास का औपचारिक समापन हुआ।
यह चातुर्मास अपने पारंपरिक स्वरूप से बिलकुल हटकर, बिना किसी बड़े पंडाल, आडंबर या भव्य अनुष्ठान के आयोजित किया गया, जिसने वर्तमान समय के धार्मिक आयोजनों के लिए एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। मुनिश्री ने साबित किया कि धार्मिक क्रियाएँ बिना धन के दिखावे के भी सफलतापूर्वक संपन्न हो सकती हैं।
तप और त्याग का संदेश
मुनिश्री मौन सागर जी ने इस चातुर्मास के माध्यम से समाज को यह स्पष्ट संदेश दिया कि सच्चा धर्म आडंबर में नहीं, बल्कि सहजता, तप और त्याग में निहित है। उनके सहज आचरण और गहन वैराग्य ने सुसनेर समाज को आध्यात्मिक उत्थान की नई दिशा दी है।
पिच्छिका परिवर्तन की अनोखी मिसाल
चातुर्मास का सबसे उल्लेखनीय कार्यक्रम पिच्छिका परिवर्तन रहा, जिसे अत्यंत सहज और साधारण तरीके से संपन्न किया गया। मुनिश्री ने प्राचीन काल के मुनिराजों का उदाहरण देते हुए बताया कि वे जंगल में मोर के पंखों को एकत्र करके पिच्छिका धारण करते थे और पुरानी पिच्छिका को वहीं छोड़ देते थे। इसी परंपरा का पालन करते हुए यह पिच्छिका परिवर्तन बिना किसी तामझाम के सहजता से किया गया।
इस दौरान मुनिश्री मौन सागर जी महाराज की पुरानी पिच्छी लेने का सौभाग्य मनीष गोधा, इंदौर को; मुनि सागर जी महाराज की पुरानी पिच्छी श्रीमती मंजुलता महावीर जैन विद्यार्थी, सुसनेर को; तथा मुनिश्री मुक्ति सागर जी महाराज की पुरानी पिच्छी प्रकाशचंद जी, सीमा जी (श्यामपुरा वाले) को प्राप्त हुआ। कार्यक्रम का संचालन ब्रह्मचारी मंजुला दीदी ने किया।
ध्यान, तप और अध्ययन पर रहा केंद्रित
इस चातुर्मास का मुख्य उद्देश्य चतुर्थकालीन आगम में वर्णित तप, ध्यान और अध्ययन था। मुनिश्री ने अपना पूरा समय इन्हीं आध्यात्मिक क्रियाओं में व्यतीत किया। चातुर्मास के दौरान पूरे समय आयोजित प्रातःकालीन कक्षा ने सभी श्रोताओं के जीवन में गहरा आध्यात्मिक और वैराग्यपूर्ण परिवर्तन लाकर, उन्हें सांसारिक चकाचौंध से हटकर आत्मा के उत्थान की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी।
