कोरोना के तांडव से निपटने के लिये हमारे स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों के साथ पूरा जिला प्रशासन जी-जान से जुटा हुआ है। प्रशासन अपनी क्षमता से दुगुना कार्य कर रहा है। कई मोर्चों पर परिस्थितियों से युद्ध लड़ा जा रहा है। कभी ऑक्सीजन सिलैण्डरों के लिये जद्दोजहद, रेमडेसिविर इंजेक्शनों का अभाव, चिकित्सालयों में ऑक्सीजन पलंगों की कमी, श्मशान में चबूतरों और लकड़ी की कमी, इतने सारे मोर्चों पर एक साथ लडऩे की क्षमता हमारे प्रशासनिक अधिकारियों को बाबा महाकाल के अलावा और कोई नहीं दे सकता, यह क्षमता देना मनुष्य के वश की बात तो हो ही नहीं सकती।
ऐसी आपातकालीन स्थितियों में हर नागरिक का भी कत्र्तव्य है कि वह धैर्य और संयम के साथ जो लोग व्यवस्थाओं से जुड़े हुए हैं उन्हें सहयोग करें। बीते दिनों माधव नगर चिकित्सालय में चिकित्साकर्मियों और मृतक या मरीजों के परिजनों के बीच हुआ विवाद दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिसके घर का सदस्य जाता है उसका दर्द उसके अलावा और दूसरा कोई महसूस नहीं कर सकता और ऐसी स्थिति में परिजनों का आक्रोशित होना मानवीय प्रवृत्ति है। परंतु कोरोना का यह संकट दुनिया में अभी तक आये संकटों से बिलकुल अलग है।
भूकंप, बाढ़, आगजनी, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी दुनिया भर में हजारों लोग अपनी जान गंवाते हैं परंतु इन आपदाओं में घायल हजारों लोगों का उपचार करने में चिकित्साकर्मियों को कोई परेशानी नहीं आती है परंतु वर्तमान हालात में स्वास्थ्यकर्मी, सफाईकर्मी, पुलिसकर्मी, प्रशासन के कर्मचारी-अधिकारी जिन परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं उसकी कल्पना मात्र से ही आपके रोंगटें खड़े हो जायेंगे।
आज जबकि खून के रिश्ते वाला परिवार का सदस्य भी किसी परिजन के कोरोना संक्रमित हो जाने पर पास नहीं जाता है उससे दूरी बना लेता है जीते जी तो ठीक है मरने के बाद भी अपनी जान जाने के डर से हाथ नहीं लगाता है। ऐसी परिस्थिति में कल्पना कीजिये आपके परिजन का अंतिम संस्कार कौन कर रहा है? मात्र 7-8 हजार वेतन पाने वाले स्वास्थ्यकर्मी या निगमकर्मी जिनका स्वयं का भी परिवार है वह भी किसी के भाई, बेटे, पुत्र, पिता हैं पर फिर भी वह इस कार्य को कर रहे हैं।
इसी तरह अस्पतालों में बहुत कम तनख्वाह वाले स्वास्थ्यकर्मी अपनी जान की बाजी लगाकर मरीजों का उपचार कर रहे हैं उन्हें स्पर्श भी कर रहे हैं, वह लोग भी किसी परिवार के दीपक हैं। उनके भी कंधों पर जवाबदारी का बोझ है, फिर भी वह जान पर खेलकर 12-12 घंटे अपनी ड्यूटी देकर मरीज की जान बचाने की, उसे ठीक करके घर भेजने का प्रयास कर रहे हैं।
मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति या कर्मचारी जानबूझकर किसी की जान लेने के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है अपवादों को छोडक़र, वर्ना इस हालात में जो सेवा वह कर रहे हैं खून के रिश्ते वाला भी नहीं कर सकता यह मेरा दावा है। दुनिया में अभी खराब लोग कम है अच्छे लोग ज्यादा हैं इसी कारण दुनिया चल रही है। कलियुग आया जरूर है पर शायद अभी उसका चरम नहीं आया है। मानवता, इंसानियत अभी भी जिंदा है।
अपने ही शहर की बात कर ले चाहे जिलाधीश आशीष सिंह हो, पुलिस अधीक्षक सत्येन्द्र कुमार शुक्ल हो, प्राधिकरण सी.ओ. सुजानसिंह रावत हो या ए.डी.एम. नरेन्द्र सूर्यवंशी हो, मैदान में तैनात पुलिस अमला हो उनकी दिनचर्या पता चलेगी तो हक्का-बक्का रह जाओगे दोस्तों। भगवान संकट देता है तो कुछ लोगों को देवता के रूप में भी हमारे बीच मदद के लिये भेज ही देता है।
चिकित्सा क्षेत्र में डॉ. सोनानिया, सामाजिक क्षेत्र से ऑक्सीजन सिलैण्डर उपलब्ध करवाने वाले मनीष शुक्ला जी, महेश सीतलानी जी, माजिद भाई, भानु भदौरिया जी, डॉ. निर्दोष निर्भय, महावीर उज्जैन वर्तमान में देवदूतों के समान ही कार्य कर रहे हैं।
इन कठिनतम और विपरीत परिस्थितियों में मेरा सभी नागरिकों से करबद्ध निवेदन है कि संकट बहुत बड़ा है केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, जिला प्रशासन अपनी पूरी ताकत के साथ लगे हुए हैं। यह समय जो लोग दिन-रात लगे हुए हैं उनका मनोबल बढ़ाने का है तोडऩे का नहीं। यदि मनोबल एक बार टूट गया तो हम इस युद्ध का अंत होने के पहले ही हार जायेंगे।
आप कल्पना तो कीजिये कि यदि इन हालातों में स्वास्थ्यकर्मियों ने हड़ताल कर दी या काम करने से मना कर दिया तो हम कितनी जिंदगियाँ खो देंगे? यही हाल पुलिसकर्मियों का भी है वह जिन हालातों में काम कर रहे हैं उसमें उनके स्वभाव में परिवर्तन होना स्वाभाविक है पर बिना पुलिस के भी समाज नहीं चल पायेगा यह भी सत्य है।
अत: आवश्यकता है हमें धैर्य व संयम रखने की।