आधुनिकता के इस दौर में सभी क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन के साथ ही भारतीय समाज को भी अपनी संस्कृति, संस्कारों को समय के साथ कदम-ताल कराकर चलना होगा तभी भविष्य के सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों का ताना-बाना जड़ों से जुडक़र रह पायेगा अन्यथा आने वाले समय में भौतिकवाद की इस अंधी दौड़ में सब कुछ नष्ट हो जायेगा। उसी तरह जिस तरह कभी भारतीयता की आन बान और शान समझे जाने संयुक्त परिवार इतिहास की वस्तु बनकर रह गये हैं।
विदेशों की तरह हमारे देश में भी बढ़ रहे वृद्धाश्रम भारतीय समाज के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। वृद्धाश्रमों की तेजी से बढ़ रही संख्या के पीछे हमारे विचारों में आये प्रदूषण के साथ ही पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में आयी खटास भी बहुत बड़ा कारण है। क्या कारण है कि आज भी भारतीय महिलाएं बहू की तुलना में बेटी को ज्यादा अपनत्व और प्यार देती है?
यदि दामाद, बेटी की हर जायज और नाजायज इच्छा पूरी करता हो, बेटी की हर आज्ञा का पालन करता है तो वह दामाद बहुत उम्दा और संस्कारवान माना जाता है उसी जगह बेटा यदि बहू की इच्छा पूरी करे उसे खुश रखने का जतन करे तो वह बेटा जोरू का गुलाम कहलाता है। एक ही मामले में दो तरह के मापदंड ही असली मुसीबत की जड़ है।
अनादि काल से ही भारतीय समाज में सास-बहु के संबंधों को विपरीत धु्रवों के संबंधों की तरह माना गया है। हमारी भारतीय फिल्मों ने भी सासों को खलनायक बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। हम सबको अच्छी तरह से याद है कि ललिता पंवार जैसी फिल्मी किरदार का नाम आते ही हमारे सामने एक क्रूर और निर्दयी सास का चेहरा घूमने लगता है।
अधिकांश भारतीय फिल्मों में सास को अत्याचारी ही बताया गया है चाहे वह ‘सीता और गीता’ हो या अन्य फिल्म, बहुत कम ही ऐसी फिल्में बनी होगी जिसमें सास और बहू के रिश्ते मधुर बताये गये हैं या जिसमें बहू को बेटी के समतुल्य सास ने प्यार और स्नेह दिया हो।
फिल्मी दुनिया के बाद छोटे पर्दे (टी.वी.) ने तो और आग में घी का काम किया। टी.वी. पर दिखाये जाने वाले अधिकांश धारावाहिकों में सास-बहू के रिश्तों में और जहर घोलने का का काम किया है। हमारे भारतीय समाज के लिये नासूर बन चुके यह अधिकांश धारावाहिक देवरानी-जेठानी, नंद-भौजाई के बीच षडय़ंत्रों पर ही आधारित होते हैं।
इतने वर्षों बाद भी भारत की बहुओं को बेटी जैसा सम्मान, अपनत्व, ममता, प्यार, दुलार, स्नेह ससुराल में क्यों नहीं मिल पा रहा है? ससुराल वालों के नाराज होने का डर बहु को हर वक्त कश्मकश में डाले रहता है। फिर भी वह सिर्फ अपने कत्र्तव्यों के निर्वहन में लगी रहती है।
एक बेटी होने का सुख उससे बहु बनते ही छिन जाता है। बिस्तर पर चाय पीने वाली बेटी, सुबह सबकी चाय बनाती दिखती है। क्यों सास, ससुर व परिवार के लोगों द्वारा घर की बहु को पूरा सम्मान नहीं दिया जाता जो वह अपनी खुद की बेटी को देते हैं।
ऐसी स्थिति में वह अंजान लडक़ी अपने मन में ससुराल वालों के प्रति कोमल भावनाएं कैसे पल्लवित करे? जिस अपनेपन से बेटी अपनी माँ की गोद में सर रखकर लेट सकती है क्या बहु अपनी सास की गोद में सर रखकर लेट सकती है?
हमें भी अपनी बेटी की तरह बहुओं की कमियों को नजरअंदाज करना होगा। बहू के मन में ससुराल के लोगों के प्रति प्रेम और कोमल भावनाओं का पल्लवन तभी होगा जब उसकी खुशी हमारे लिये मायने रखेगी। भरोसा कीजिये एक बार दिल से प्रेम की वर्षा कर के तो देखिये, आपकी बहू आपकी सगी बेटी से बढक़र आपके सामने होगी।
अपनी बेटी और अपने बेटे को अपना मान, सम्मान और अभिमान बताना तो मानव प्रवृत्ति होकर बड़ा आसान है क्योंकि वह आपके स्वयं का खून है परंतु किसी दूसरे के खून और बेटी को अपना मान, सम्मान, अभिमान मानना कलेजे का काम है। और आज के समय की मांग यही है कि मेरी बेटी-मेरा अभिमान की जगह हमारी बहु-हमारा स्वाभिमान, हमारी बहु-हमारा अभिमान समाज में स्थापित हो,
यदि ऐसा हो सका तो देश में वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या पर रोक लग सकेगी, क्योंकि यदि बहु ने सास-ससुर को माता-पिता का दर्जा दे दिया और उसके मन में माँ-बाप की जगह सास-ससुर ने ले ली तो फिर बुजुर्गों को वृद्धाश्रम नहीं जाना पड़ेगा, क्योंकि भारतीय बेटियाँ अपने माता-पिता को कभी वृद्धाश्रम नहीं भेजती है।