साक्षरता अभियान जिले में नौ दिन चले अढ़ाई कोस

पढ़ाई लिखाई के मामलों पर ध्यान देना गवारा नहीं है।
इनको अक्षर ज्ञान के नाम सिर्फ कागजी।
खानापूर्ति करना ही काम इनका।
हर महीने पगार तो बराबर लेते हैं।
फिर नाहक माथा पच्ची क्यो करे।
ईमानदारी नाम की बाकी नहीं है।
सिर्फ आंकड़ो की जादूगीरी काम है इनका।

झाबुआ।  ये पंक्तिया जिले में साक्षरता अभियान में सामयिक लगती है।आठ सितंबर से साक्षरता दिवस। साक्षरता सप्ताह,साक्षरता पखवाड़ा की धूम रहती कही एक दिन तो कही सप्ताहांत कुछ आयोजन चलते रहते। बहुत ढोल पीटा जाता साक्षरता बढ़ाने के प्रयास का किन्तु आजादी के अमृत महोत्सव तक स्थिति वही ढाक के तीन पात। न साक्षरता ग्राफ में गुणात्मक वृद्धि हुई जि़ले में न स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर विकास।1994 मे में जि़ले में साक्षरता के नाम पर लाखों फूंके गये युनिसेफ ने भी बहुत प्रयास किया।

कला पृथक दल कि टोलियां ठिठौलिया करतीं गांव गांव में निकली स्कूलों में शिक्षको सहित स्वयंसेवक रात में कक्षा संचालन की नौटंकी करते रहे अधिकारियों की टीम चुनिंदा जगह की मानिटरिग कर वाहवाही की कसीदे सुन प्रसन्नता में फूले न समाए। पूर्व कलेक्टर मनोज झालानी गांव गांव पैदल आखर यात्रा लेकर निकले पर चुनाव आते आते मतदाता पंजीयन में लगें अंगूठे बयां कर रहें थे यह फर्जीवाड़ा भी खूब छोटे से बड़े स्तर तक हुआ। फिर मनोज श्रीवास्तव कलेक्टर बन आए उनके कार्यकाल में पढऩा बढऩा कार्यक्रम चला सतत चलता रहा पर नतीजे धरातलीय की जगह कागजी हो चला ।

वसीम अख्तर कलेक्टर आए तब व्यापक कार्यक्रम प्रोढ शिक्षा उन्मूलन के तहत् चलें पर न स्वयंसेवक रूचि ले पढ़ाते रहे न निरक्षर पैतीस से पचास वर्ग के आयु वाले उत्साह से पढऩे में रूचि लेते रहे। मेघनगर ब्लाक संपूर्ण साक्षरता का माडल कागजों में बनता रहा तत्कालीन क्षेत्रीय अधिकारी गोतम व फिलहाल तड़ीपार उदयगढ़ बीईओ मामले में तब के तत्कालीन अधिकारी परमानंद धाकड़ मलाई खाते रहे।

जिले में एक कक्ष में बकायदा साक्षरता से जुडा कार्यालय भी हैं जहां दो लोग शासकीय कर्मचारी शासन से वेतन भी लें रहें किन्तु साक्षरता का ग्राफ कोई खास प्रगति नहीं कर रहा धीरेन्द्र चतुर्वेदी हो या तत्कालीन अधिकारी ब्रजकिशौर पटेल सब अशिक्षा के अंधकार को दूर करने में नाकाम रहे।

बस खुद लक्ष्मी पुत शासकीय राशि में बंदरबांट कर बनते रहे। पटेल कवि सम्मेलन मंडली जुटाते रहें सरकारी गाड़ी वाहन का चुना लगातें रहे। विगत सात आठ वर्षों में थोड़ा प्रयास धरातलीय दिखा ज़रूर प्रेरकों के चलते। अल्प मानदेय में दो हजार में इन प्रेरकों के प्रयास उस वक्त पानी फिर गये जब शासन ने दो तीन वर्षों से उन्हें बाहर का रास्ता दिखा।

किसी स्वयंसेवी संस्था को जिम्मा दे दिया अ से अक्षर अभियान कितना असरकारी रहा इसकी पोल चुनाव के दौरान लगें अंगूठे निर्वाचन फार्म भरने से लेकर मतदान के वक्त पंजी से खुल गयी। शासन ने जिले में एक शिक्षक को जिला समन्वयक का जिम्मा देकर उसे स्कूल से मुक्त कर कर दिया किन्तु वे बेचारे भी अशिक्षा के अंधकार से जि़ले के मुक्त नहीं कर पाएं। बस चेम्बर्स में सुस्ती खाते औपचारिकता पूरी कर रहे। जिला प्रशासन अ से अक्षर अभियान की सही मानिटरिग में क्यूं विफल साबित हों रहा।

क्यूं जि़ले के छ: विकास खंड में उक्त अभियान फिसड्डी हों रहा क्यूं वनवासी अशिक्षा अक्षर ज्ञान से अब भी मुक्त नहीं हैं इसका जवाब न तों जनप्रतिनिधियों ने तलाशने का प्रयास किया न अधिकारी व जिला समन्वयक ने समाधान के कोई नवाचार के नवीन उपाय तलाशे।

अप्रवेशी शाला त्यागी व सब्जी बेचती महिलाएं तगाड़ी फावड़ा चलाते मजदूर मजबूर हैं। अधिकारियों के औपचारिक प्रयास से अक्षर ज्ञान से अ से आ की मात्रा की यह यात्रा आजादी के साढ़े सात दशक में अमृत महोत्सव तक अभी भी अधूरी है।

जिला पिछडा गरीबी अशिक्षा में देश के दस न्यूनतम साक्षर जि़ले में शुमार है किन्तु नौकरशाही बेफिक्र सिर्फ कागजीय आंकड़ों में मशगूल हे। ओर अब एक बार फिर अ से अक्षर अभियान चला कर साक्षरता के नाम करोड़ों का बजट चट करने के फिराक में है।

इसीलिए यह कहना उचित होगा कि…

न नेता चाहते है कि गरीब पढ़े और आगे बढ़े।
न अफसर चाहते है कि इन्हें पढा कर समझदार बनाये।
मिला जुला ढर्रा चलरहा बरसों से यहां।
अब तो कोई अवतार ही आकर।
चमत्कार करे यहां।

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