दो गुट देर रात तक बरसाते रहे आग
इंदौर, अग्निपथ। एक इशारा मिलते ही 2 गुटों में युद्ध छिड़ गया। जलते हुए हिंगोट बरसने लगे। इसमें 7 लोग घायल हुए हैं।
जिले के गौतमपुरा गांव में 2 साल बाद हुए पारंपरिक हिंगोट युद्ध को देखने के लिए रतलाम, उज्जैन, इंदौर सहित कई जिलों से लोग पहुंचे। देर रात तक तुर्रा और कलंगी दल के योद्धा आमने-सामने रहे।
कोरोना के कारण पिछले 2 साल से हिंगोट युद्ध नहीं हुआ था, इसलिए इस बार लोगों ने जमकर एक-दूसरे पर हिंगोट फेंके। इसमें 7 लोगों के घायल होने की सूचना है। युद्ध देखने के लिए हजारों लोग पहुंचे। प्रशासन ने सुरक्षा के पुता इंतजाम कर रखे थे।
तुर्रा और कलंगी दल के योद्धा सिर पर साफा, कंधे पर हिंगोट से भरे झोले, हाथ में ढाल और जलती लकड़ी लेकर बुधवार दोपहर 4 बजे नाचते गाते मैदान में निकल पड़े। भगवान देवनारायण मंदिर में दर्शन कर मैदान में आमने-सामने खड़े हुए। संकेत मिलते ही युद्ध शुरू हुआ। इसमें 7 योद्धा घायल हुए। हिंगोट युद्ध परंपरा का हिस्सा है। इसमें भाग लेने वाले योद्धाओं को भी नहीं पता कि इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई।
ऐसे होती है युद्ध की शुरुआत
दिवाली के अगले दिन पड़वा पर दोपहर 4 बजे तुर्रा-गौतमपुरा और कलंगी-रूणजी के निशान लेकर 2 दल यहां पहुंचते हैं। सजे-धजे ये योद्धा कंधों पर झोले में भरे हिंगोट (अग्निबाण), एक हाथ में ढाल व दूसरे में जलती बांस की कीमची लिए नजर आते हैं। योद्धा सबसे पहले बडऩगर रोड स्थित देवनारायण मंदिर के दर्शन करते हैं। इसके बाद मंदिर के सामने ही मैदान में एक-दूसरे से करीब 200 फीट की दूरी पर दोनों दल आमनेसामने आ जाते हैं। इसके बाद गौतमपुरा के तुर्रा दल द्वारा जलता हुआ हिंगोट रूणजी के कलंगी दल पर फेंकने के साथ ही इस युद्ध की शुरुआत हो जाती है।
जैसे ही हवा में एक अग्निबाण चलता है, योद्धा एक-दूसरे पर जलते हिंगोट फेंकने शुरू कर देते हैं। अंधेरा होने तक चलने वाले युद्ध चलता है। कई लोग घायल भी होते हैं, लेकिन इनके उत्साह में कहीं कमी नहीं आती। जैसे ही अंधेरा होता है युद्ध समाप्त कर दिया जाता है।
सांवेर तहसील के गांव की गली-गली में सज रही कांग्रेस की गाँधी चौपाल क्रिकेट मैच की तरह ही है। इस बार युद्ध में संशय होने से वे थोड़े निराश नजर आए।
राजीव गांधी ने कराया था युद्ध
1984 में दिल्ली में हुए मालवा कला उत्सव में विशेष आमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने तुर्रा व कलंगी दल के योद्धाओं ने इसका प्रदर्शन किया था। तब करीब 16 योद्धाओं को नगर के प्रकाश जैन दिल्ली ले गए थे। दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में करीब एक घंटे इसका प्रदर्शन किया गया था। यह युद्ध कब से शुरू हुआ, इसका या इतिहास है, कोई नहीं जानता।
यह युद्ध पूर्वजों की धरोहर
कलंगी दल के एक योद्धा का कहना था कि यह परंपरा हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। रतलाम, उज्जैन, इंदौर सहित कई जिलों से लोग यहां युद्ध देखने आते हैं। पिछले कई सालों से हिंगोट युद्ध देखने आ रहे लोगों के अनुसार ये अनूठा खेल है, जो उन्हें बहुत लुभाता है। इसका रोमांच भी भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच की तरह ही होता है।
कठोर खोल वाले फल से बनता है हिंगोट
यह एक प्राचीन लेकिन खतरनाक परंपरा है, जो तुर्रा और कलंगी समूहों के द्वारा खेली जाती है। इसमें जलते हुए हिंगोट एकदूसरे के ऊपर फेंके जाते हैं और अंत में यह छद्म लड़ाई बिना हार-जीत के खत्म हो जाती है। हिंगोट एक किस्म का मजबूत खोल वाला फल होता है जिसको सुखाकर बारूद भरकर सील कर दिया जाता है। इसको जलाकर विरोधी गुट पर फेंका जाता है, जो बहुत तेजी से रॉकेट की तरह जाकर लगता है।