अर्जुन सिंह चंदेल
आज दिनभर में हमें दार्जिलिंग घूमना था, अधिकृत रूप से दार्जिलिंग में छह ही पाईंट है। घनी बसाहट वाला यह शहर अँग्रेजों द्वारा बसाया हुआ है। मेची तथा तीस्ता नदी के मध्य समुद्र तल से 6982 फीट ऊँचायी पर बसे इस शहर की खोज की कहानी दिलचस्प है। अँग्रेजों और नेपाल के बीच युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी सिक्किम जाने के लिये छोटा रास्ता तलाश रही थी तभी उन्हें यह सुंदर जगह दिखायी दे गयी।
दार्जिलिंग का अर्थ
दार्जिलिंग दो तिब्बती शब्द दोर्जे (ब्रज) लिंग (स्थान) से मिलकर बना है। 1856 से चाय की खेती की शुरुआत होने के बाद 1057 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले दार्जिलिंग में मजदूरों के रूप में नेपाली, भूटानियों को लाकर बसाया गया। उत्कृष्ट चाय के लिये दुनिया भर में मशहूर दार्जिलिंग में 100 से अधिक चाय बागान हैं जिनमे 64 हजार से ज्यादा मजदूर काम करते हैं।
2001 की जनगणनानुसार यहाँ की जनसंख्या 1 लाख 7 हजार 530 थी। सबसे पहले हम पहुँच गये ‘घूम मठ’ जो कि बहुत खूबसूरत बना हुआ है, यहाँ पर बौद्ध भिक्षुकों द्वारा निरंतर प्रार्थना, पूजा की जाती है। हमारा दूसरा पाईन्ट बतासिया लूप एक हवादार स्थान है जो पर्यटकों को कंचनजंगा पर्वत और अन्य बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों के शानदार दर्शनों के लिये आकर्षित करता है।
बतासिया लूप के मध्य में ही एक युद्ध स्मारक बहादुर गोरखा सैनिकों की स्मृति में निर्मित किया गया है, जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद से राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया। इसका निर्माण 22 मार्च 1995 को पूर्ण हुआ। पूरे संसार में अपनी बहादुरी और वीरता के लिये पहचाने जाने वाले ‘गोरखा’ वास्तव में विभिन्न वनवासियों के समूह है जो भाषा, रीति रिवाज, परंपराओं का मिश्रण है यह समूह ही भारतीय गोरखा कहलाया।
युद्ध कौशल में पारंगत गोरखा लोगों के नाम पर भारतीय सेना में पूरी रेजीमेंट ही है। वीर शहीद गोरखाओं के स्मृति स्थल पर श्रद्धा से नमन करने और वहाँ की मिट्टी को अपने मस्तक पर लगाकर बाहर निकले, सामने ही यूनेस्को में विश्व धरोहर के रूप में दर्ज हिमालयन रेल का नजारा दिखायी पड़ा। सन् 1870 से प्रारंभ यह नेरोगेज टे्रन 70 किलोमीटर लंबे मार्ग पर चलती है इसका रेल पथ समुद्र तल से 7548 फीट तक ऊँचा है।
जहाँ हम खड़े थे बतासिया लूप पर यह टे्रन अद्भुत तरीके से ‘8’ अंक के सामान आकार लेती है। दार्जिलिंग आने वालों के लिये यह ट्राय टे्रन बहुत बड़ा आकर्षण है जिसके हम दर्शन कर चुके थे। इसके बाद एक और बौद्ध मठ देखने के बाद हम पहुँच गये चाय बागान देखने चूँकि मौसम नहीं था और केरल यात्रा दौरान हम देख चुके थे इसलिये मजा नहीं आया।
सबसे प्रमुख दर्शनीय स्थल हिमालय पर्वतारोहण संस्थान है जिसमें पर्वतारोहियों के संघर्ष की दास्तां और उनके द्वारा हिमालय फतह के क्षणों को दिखाया गया। 29 मई 1956 को शरेपा तेन्जिंग नारेगे और एडमंड हिलेरी ने जब हिमालय फतेह किया था तो उनके द्वारा उपयोग किये गये सामान, जिसमें औजार, कपड़े और अन्य चीजें प्रदर्शित की गई है।
बहुत अच्छा लगा इस संस्थान को देखकर इसका टिकट 25/- रूपये है जिसमें चिडियाघर भी शामिल है। यह गुरूवार को बंद रहता है। सामने ही चिडियाघर भी है जिसमें शेर, लाल पांडा, तेन्दुआ, बर्फीले भालू देखने को मिले लगभग दो घंटे का समय लगा। दार्जलिंग में उच्च स्तर के निजी विद्यालय भी काफी संख्या में जिसमें से कुछ अंग्रेजों द्वारा स्थापित है। यहाँ से रवाना होने के बाद रंगीत घाटी पैसेंजर केबल कार का आनंद लिया जो भारत की सबसे पुरानी केबल कार है यह 5 किलोमीटर लंबी होकर 16 डिब्बों वाली है। यह नार्थ पाईंट और रमन नदी के तट के बीच 7000 फीट की ऊँचाई पर चलती है।
यह केबल कार दार्जिलिंग चाय बागानों और जंगलों के ऊपर से गुजरती है जिसमें 45 मिनट का समय लगता है। दार्जलिंग में एक वर्ष में 120 इंच बारिश होती है। सबसे अंत में पीस पगोडा देखा जो गाँधीजी के मित्र फूजी गुरू द्वारा स्थापित है यहाँ पर 6 शांति स्तूप है। इस तरह हमारी दार्जलिंग यात्रा समाप्त हुई। होटल पहुंचकर भोजन कर रात्रि विश्राम पश्चात सुबह 10 बजे निकल पड़ बागडोगरा के लिए। वहाँ से 3:45 की फ्लाईट पकडक़र कलकत्ता, कलकत्ता से इंदौर और सडक़ मार्ग से होते हुए रात 10 बजे उज्जैन आ गए।
समाप्त