हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में चरमपंथी गुट तालिबान की बढ़ती ताकत से भारत को चिंतित होना चाहिये। तालिबान के बढ़ते प्रभाव का सीधा असर हमारे जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रविरोधी ताकतों को होगा जो तालिबान की मदद से अपने आप को मजबूत करेंगे। अमेरिकी बमबारी और बीते 20 वर्षों से हो रहे निरंतर हमलों से जर्जर हो चुके अफगानिस्तान के कंधार, काबुल, हेरात और मजार ए शरीफ जैसे शहर एक समय अपनी खूबसूरती, जलवायु तथा बेहतरीन किस्म के मेवों के उत्पादन की वजह से दुनिया भर में मशहूर थे।
वर्तमान में आतंकवाद और तालिबान की दहशत से घिरा यह राष्ट्र करीब छह सौ साल पहले जन्नत की तरह हसीन होने के साथ-साथ सभ्यता का प्रमुख केन्द्र और पौष्टिक मेवों का मुख्य उत्पादक भी था। चारों ओर से पहाड़ों से घिरे काबुल के फलों जिसमें अंगूर, अनार, खुमानी, सेब, नाश्पाती, बेर, आलूबुखारा, अंजीर और अखरोट और गर्म घाटी में पैदा होने वाले संतरे और गलगल की दुनिया दीवानी थी। भारत का अफगानिस्तान से रिश्ता सदियों पुराना है।
महाभारत काल में अफगानिस्तान के गांधार (वर्तमान में कंधार) की राजकुमारी गांधारी का विवाह हस्तिनापुर (वर्तमान में दिल्ली) के राजकुमार धृतराष्ट्र से हुआ था। सन् 1933 से लेकर 1973 तक का समय अफगानिस्तान के लिये उथल-पुथल भरा रहा।
जाहिर शाह के शासन के बाद उसके जीजा और फिर कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव के कारण अस्थिरता आयी। कम्युनिस्टों की मदद के लिये 24 दिसंबर 1979 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर जबरदस्त सैन्य क्षमता और आधुनिक हथियारों के दम पर हमला कर कई इलाकों पर कब्जा कर लिया। रूस की इस बड़ी कामयाबी को कुचलने के लिये उसके कट्टर दुश्मन अमेरिका ने पाकिस्तान का सहारा लिया।
पाकिस्तान सोवियत संघ को अफगानिस्तान से खदेडऩे के लिये सीधी टक्कर नहीं ले सकता था इसलिये उसने तालिबान नामक संगठन का गठन किया। तालिबान में पाक सेना के अधिकारियों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जेहादी शिक्षा देकर भर्ती किया अमेरिका की सी.आई.ए. (सेन्ट्रल इंटेलिजेन्स एजेंसी) या केन्द्रीय गुप्तचर संस्था जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संघीय सरकार के अंदर कार्य करने वाली असैनिक (सिविल) गुप्तचर संस्था ने तालिबान को हथियार और पैसे उपलब्ध करवाये।
तालिबान की मदद के लिये अरब के कई देशों जैसे सऊदी अरब, ईराक आदि ने रुपये और मुजाहिदीन उपलब्ध कराये। अमेरिका से प्राप्त आधुनिक हथियारों की मदद से तालिबान लड़ाकों ने 10 वर्षों के बाद सोवियत संघ की सेनाओं को अफगानिस्तान छोडऩे पर मजबूर कर दिया। रूस की सेनाओं के जाने के बाद तालिबान प्रमुख मुल्लाह ओमर और अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन का सम्मान किया गया। इस तरह अमेरिका और पाक की अवैध संतान तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा हो गया।
अमेरिका और अफगानिस्तान के संबंध 2001 में खराब हुए जब 11 सितम्बर 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ जिसका मास्टर माइंड अलकायदा का प्रमुख ओसामा बिन लादेन था। तात्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज विलियम बुश ने अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज अपनी ही संतान तालिबान से अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को सौंपने की मांग की। तालिबान ने यह कहकर अमेरिका की मांग ठुकरा दी कि पहले ओसामा बिन लादेन की संलिप्तता के सबूत प्रस्तुत करें।
अमेरिका ने इस जवाब से बौखलाकर अपने नेतृत्व में नाटो सेना ने अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा के ठिकानों पर ताबड़तोड़ हवाई हमले कर उनकी कमर तोड़ दी। अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों के 1 लाख चालीस हजार सैनिक पिछले 20 वर्षों से अफगानिस्तान में ही डटे हुए थे जिनकी अब वापसी 11 सितम्बर को पूर्ण हो जायेगी। नाटो सैनिकों की वापसी की शुरुआत के बाद से ही तालिबान फिर मजबूत हो गया है। तालिबान लड़ाकों ने अफगानिस्तान के 370 जिलों में से 50 जिलों पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया है। अफगानिस्तान के सरकारी सैनिकों के प्रतिरोध के बावजूद तालिबान प्रांतीय राजधानियों की ओर बढऩे में सफल हो रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी कुछ दिनों में अफगानिस्तान की प्रजातांत्रिक सरकार की जगह सत्ता तालिबान के हाथों में होगी। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के साथ ही भारत ने जो पिछले वर्षों में 3 अरब डॉलर का जो निवेश किया है वह डूब जायेगा साथ ही सबसे चिंताजनक पहलू तालिबान का चीन की तरफ झुकाव है। पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद चीन अफगानिस्तान में भारी निवेश करेगा जिससे भारत अलग-थलग हो जायेगा।
अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता वापसी से अलकायदा मजबूत होगा और वह जम्मू कश्मीर के आतंकी संगठनों को मदद कर अपना नेटवर्क भारत में करना चाहेगा जो देश के लिये चिंता का विषय है। जिस चरमपंथी संगठनों तालिबान और अलकायदा को अमेरिका ने पाल पोस कर बड़ा किया वही अब अमेरिका के लिये नासूर साबित हो रहा है।