शुक्रवार को हमारे पड़ोसी शहर इंदौर में हुई अमानवीय घटना ने यह दिखा दिया है कि हम परिवेश, रहन-सहन में कितने ही आधुनिक हो जाएं परंतु हमें इंसान बनने में अभी और वक्त लगेगा। शुक्रवार को इंदौर नगर निगम के कर्मचारी ट्रक में कूड़े-कचरे की तरह भरकर लाये गये 8-10 बुजुर्गों को जिनमें दो महिलाएँ भी थीं, नगर निगम सीमा से बाहर क्षिप्रा नामक गाँव में उतारकर जाने लगे।
हाड़ कंपकंपाने वाली सर्दी में जहाँ दिन का तापमान भी सामान्य से काफी कम था, दिन में 2-2:30 बजे के करीब एक चाय बनाने वाले रमेश नामक व्यक्ति ने इस दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लिया। रमेश ने बताया कि इन बुजुर्गों में कुछ तो अशक्त थे जिनको निगमकर्मियों ने टांगा-टोली कर उतारा था। उसके द्वारा इस कृत्य का विरोध करने पर गाँव वाले भी जमा हो गये, तब निगमकर्मियों ने वापस उन बुजुर्गों को ट्रक में लादा और इंदौर की ओर चले गये।
मानवता को शर्मसार करने वाली इस घटना का वीडियो वायरल होते ही इंदौर से लेकर पूरे देश में खलबली मच गई। मध्यप्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री माननीय श्री शिवराज सिंह चौहान ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को संज्ञान में लेते हुए इंदौर नगर निगम के चतुर्थ श्रेणी के दो अस्थायी कर्मचारियों को बर्खास्त और एक सहायक आयुक्त को निलंबित कर दिया गया।
सियासतदारों ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का राजनैतिक लाभ लेने का उपक्रम तत्काल शुरू कर दिया। प्रदेश और केन्द्र के विपक्षी नेताओं के संदेश आना चालू हो गये। खैर उनको तो यह करना ही था कि इस कृत्य की निंदा, लानत-मलानत वह उन्होंने किया। पर इंदौर की यह घटना हम सबके दिलों-दिमाग में कुछ अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गई है। शायद इस तरह की घटनाएँ आदम-हौन्वा के जमाने में भी नहीं होती होगी? हमारे देश की संस्कृति का इतिहास तो कुछ और ही बताता है।
जहाँ प्रभु श्रीराम ने अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिये सत्ता का त्याग कर वनवास स्वीकार कर लिया था। फिर यह कौन लोग हैं जो अपने माँ-बाप को इस स्थिति में छोड़ गये हैं? क्या हमारे नैतिक मूल्यों का इतना पतन हो गया है कि हम आधुनिकता की इस भौतिक दौड़ में अंधे होकर इस तरह के अमानवीय कुकृत्य कर कर रहे हैं।
देश में लगातार 4 बार स्वच्छ शहर का तमगा हासिल करने वाले इंदौर के हर नागरिक को इस घटना पर आत्मग्लानि हो रही होगी और शर्मिंदगी महसूस कर रहा होगा। क्या स्वच्छता के पुरस्कार की दौड़ इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि हम शहर की गंदगी को बाहर करने के साथ ऐसे मानसिक अशक्त, बेसहारा, बुजुर्गों को भी बाहर करके इंदौर की सुंदरता बढ़ाकर स्वच्छ इंदौर बनायेंगे? यदि ऐसा हो तो यह नंबर -1 का तमगा आपको ही मुबारक हो।
हम उज्जैनवासियों को तो इसलिये भी गर्व है कि मेरी महाकाल की नगरी में सुधीर भाई गोयल जैसे लोग बसते हैं जो नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते हैं, कभी आकर देखिये हमारे शहर के नजदीक बसे ‘सेवाधाम आश्रम’ को जहाँ आपको बुजुर्ग, मानसिक विकलांग, अशक्तजनों की सेवा क्या होती है यह देखने को मिलेगा और साक्षात नारायण के दर्शन होंगे।
हमें नहीं चाहिये स्वच्छता में नंबर 1 का तमगा पर इतना जरूर दावा है कि संस्कारों में हम जरूर बेहतर है। दूसरी यह बात भी दिल और दिमाग मानने को तैयार नहीं है कि क्या निगम के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इतना बड़ा निर्णय स्वयं ले सकते हैं? जब किसी अच्छी बात के लिये पुरस्कार लेने संस्था का मुखिया जाता है सारा श्रेय उसके खाते में जाता है उसकी चरित्रावली में अंकित किया जाकर पीठ थपथपाई जाती है उसे सुयश मिलता है तो फिर शर्मिंदगी भरा यह कृत्य उसके खाते में क्यों नहीं? मात्र दो छोटे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को बर्खास्त करने का औचित्य समझ से परे है।
उन्होंने तो सिर्फ अपने आका के संदेश का पालन किया होगा। व्यक्तिगत तौर पर असहाय वृद्ध माता-पिता को छोडऩे की घटनाएँ तो प्राय: देखने और सुनने में आती रहती है परंतु अर्धशासकीय संस्था द्वारा ऐसा दुष्कर्म शायद प्रदेश की पहली घटना होगी? जहाँ एक ओर सरकारें सामाजिक सुरक्षा पेंशन, मानसिक विकलांग केन्द्र खोलकर सम्मान देने का प्रयास कर रही है, वहीं सन्न कर देने वाली इस घटना ने सभ्य समाज की संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया है। मैं प्रशंसा करना चाहूँगा इंदौर के संवेदनशील जिलाधीश मनीष सिंह जी का जिन्होंने इस घटना के लिये खजराना गणेश मंदिर जाकर क्षमा माँगी और सही भी है इस जघन्य अपराध को माफ करने का अधिकार ईश्वर के पास ही सुरक्षित है इंसान की औकात नहीं है।