बीते कुछ दिनों से देश की राजनीति में तीसरे-चौथे मोर्चे के कवायद की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही है। राजनैतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर जी की और काँग्रेस नेता कमलनाथ सहित कई राजनैतिक दलों के नेताओं की राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पंवार की मुलाकातों ने इस आग को और हवा दे दी है।
2024 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव में क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को एक ही छत के नीचे लाने की यह कवायद कितना रंग लाती है यह तो भविष्य ही बतायेगा, परंतु भारतवासियों ने देश की आजादी के बाद इस तरह के कई अनमेल राजनीतिक गठबंधनों को देखा है जो थोड़ी दूर चलकर ही दम तोड़ देते हैं। एकाध अपवादों को छोडक़र, फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इस तरह के गठजोड़ काँग्रेस पार्टी के खिलाफ हुआ करते थे और अब यह भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध खड़ा होने का प्रयास है।
‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज पर पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक की क्षेत्रीय पार्टियों को एक जाजम पर बिठाने के जो प्रयास हो रहे हैं उसमें बहुजन पार्टी प्रमुख सुश्री मायावती, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, तृणमूल काँग्रेस पार्टी की ममता बनर्जी, राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी प्रमुख हैं।
भारत जैसे 138 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में अब एक ही राजनैतिक दल की सरकार होना किसी भी दल के लिये दूर की कोड़ी हो गयी है। बीते कुछ वर्षों से अनेक क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने क्षेत्रों में मतदाताओं के बीच पकड़ मजबूत बना ली है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी तीसरी बार सत्ता में काबिज होने में सफल हुयी है इसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस भी तीसरी बार वापसी कर हैट्रिक बनाने में सफल रही है, बिहार में जद (यू), उत्तरप्रदेश में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के प्रभुत्व को नकारा नहीं जा सकता।
दक्षिण में यही स्थिति है तमिलनाडु में एआईडीएमके या डीएमके, कुल मिलाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक नजर डाले तो मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, झारखंड, असम, पंजाब ही ऐसे राज्य बचे हैं जहाँ सीधा-सीधा मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के बीच होता है। वर्तमान सरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भाजपा के नेतृत्व में (एनडीए) एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) जो काँग्रेस के झंडे तले काम कर रहा है।
यह दोनों गठबंधन इसलिये लंबे समय तक कार्यरत है क्योंकि दोनों ही गठबंधनों में नेतृत्व करने वाले राजनैतिक दल चाहे भाजपा हो या काँग्रेस मजबूत स्थिति में है, फिर भी समय-समय पर इनमें बिखराव होता रहता है जैसे एन.डी.ए. द्वारा लाये गये कृषि कानूनों के विरोध में उसके घटक अकाली दल ने एन.डी.ए. से नाता तोड़ लिया है।
श्रीमती इंदिरा गाँधी के ही कार्यकाल में काँग्रेस के पतन की प्रक्रिया शुरू हुयी थी और अंत में उनके ही समय में पार्टी टूट गयी। काँग्रेस के विघटन से ही एक पार्टी की प्रधानता वाली प्रणाली खत्म हो गयी और कुकुरमुत्तों की तरह राजनीतिक पार्टियों के उगने का दौर शुरू हो गया। भारतीय राजनीति में सरकारों के ढांचे तथा कामकाज के नये आयाम देने वाली बहुदलीय व्यवस्था की शुरुआत हो गयी।
गठबंधन के लिये अँग्रेजी शब्द ‘को अलिशन’ लैटिन से लिया गया है जिसका अर्थ साथ चलना या बढऩा होता है। राजनीतिक अर्थ में इसका इस्तेमाल राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण हासिल करने के लिये विभिन्न राजनीतिक समुहों के बीच बने अस्थायी गठबंधन के लिये किया जाता है।
सन् 1989 तक काँग्रेस के लंबे प्रभुत्व के बाद केन्द्र में गठबंधन और अल्पमत की सरकारें दिखी, केन्द्र में सत्तारूढ़ जनता पार्टी (1977-79) भी एक तरह से गठबंधन ही था। 1989 से 1999 दशक में कई अस्थिर गठबंधन और अल्पमत सरकारें दिखी जो एक के बाद एक आती रही। 1989 के बाद 2014 तक कोई भी पार्टी सदन में बहुमत हासिल नहीं कर पायी।
1989, 1990, 1997, 1998, 1999 और 2004 से 2009 के बीच कई पार्टियों ने गठबंधन सरकारें बनायी। 1989 से 1999 के बीच आठ सरकारें बनी। कई छोटे राजनैतिक दलों का प्रभाव बहुत बढ़ गया क्योंकि उनके पास जो नाम मात्र की सीटें थी, वे गठबंधन सरकार बनाने के लिये बहुत जरूरी थी। 1977 के बाद से गठित 138 राज्य सरकारों में से 40 गठबंधन की थी और उनका औसत कार्यकाल 26 माह से अधिक नहीं रहा।
फिर से एक नये राजनैतिक गठबंधन की रूपरेखा तैयार करने में लगे शरद पंवार जी के लिये यह चुनौती मेंढक़ों को तराजू में तौलने जैसा कार्य है, जिसकी संभावना कम ही नजर आती है।