कलम की ताकत के आंकलन की हिम्मत दिखाई सरकार ने, अब मीडिया भी बचाए गिरती साख

shivraj singh

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय शिवराज सिंह जी के इस बयान से कि अधिकारी समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों को संज्ञान में लें यदि खबर सही है तो संबंधित विभाग के अधिकारी त्वरित कार्यवाही करें और यदि अखबार में प्रकाशित समाचार असत्य है तो पुरजोर उसका खंडन करें, पूरे मीडिया जगत की बांछें खिल गयी है। स्वाभाविक भी है। वर्षों बाद चुनाव की दहलीज पर खड़े मुख्यमंत्री ने पत्रकारों के पक्ष में कारात्मक बयान दिया है। मुख्यमंत्री ने जनसंपर्क विभाग के आरामतलबी अधिकारियों से भी कहा है कि वह शासन द्वारा किये जा रहे अच्छे कार्यों को समाचार पत्रों के माध्यम से आम नागरिकों के बीच ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करवाये ताकि जनता के मध्य सरकार की अच्छी छवि बन सके।

समाज के नैतिक पतन के साथ ही पत्रकारिता भी समाज के साथ कदमताल करते हुए गर्त में चली गयी है। सन् 1919 से लेकर 1947 तक का समय पत्रकारिता का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। स्वर्गीय गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे मूर्धन्य पत्रकारों ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और पत्रकारिता के धर्म को हिमालय सदृश्य ऊँचाईयों तक पहुँचाया। आजादी के बाद 1947 से लेकर 1974 तक का समय पत्रकारिता के लिये देश के नवनिर्माण का काल था। आजादी के उपरांत भी पत्रकारों ने पत्रकारिता धर्मा का निर्वहन करते हुए आजाद भारत के नवनिर्माण में महत्ती भूमिका अदा की। सन् 1974 के बाद पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे में हुआ पतन निरंतर जारी है।

वर्तमान में पत्रकारिता जैसे पेशे में ईमानदार पत्रकारों के नाम से देश में कुछ ही लोग बचे हैं जो संघर्षों में जी रहे हैं, अधिकांश पत्रकारों की पत्रकारिता उद्योगपतियों के यहाँ गिरवी हो गयी है शेष बचे पत्रकार राजनेताओं एवं नौकरशाहों के गुलाम हो गये हैं। पत्रकारिता का आम जनता से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं रहा। समाचार पत्र वही खबरें प्रकाशित कर रहे हैं जो नेता और अधिकारी चाहते हैं, टीवी पर सैकड़ों न्यूज चैनलों की भीड़ में इक्का-दुक्का को छोडक़र बाकी सारे चैनल सरकार के प्रवक्ता की भूमिका में नजर आ रहे हैं। अविश्वसनीय होते जा रहे न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है देशवासियों का भरोसा खोते जा रहे हैं इन चैनलों की स्थिति रूस जैसी ना हो जाय जहाँ रूसियों ने टेलीविजन का ही बहिष्कार का दिया था वहाँ की तात्कालीन सरकार को नागरिकों से अपील करनी पड़ी थी कि वह अपने टेलीविजन सेटों को प्रारंभ करें।

अब बात करते हैं किसी समय शासन और पत्रकारों के बीच सेतू का कार्य करने के नाम से जाने वाले जनसंपर्क विभाग की जहाँ पर पत्रकारिता का गुर जानने वालों, पत्रकारों की रग-रग से वाकिफ रहने वालों को ही जनसंपर्क विभाग में अधिकारी बनाया जाता था। पत्रकार जब अधिकारी बनते थे तो वह लिखने-पढऩे के गुण में तो सिद्दहस्त होते ही थे साथ ही उनमें किसी पत्रकार की दक्षता, क्षमता के आंकलन की अद्भुत क्षमता होती थी।

शासन-प्रशासन और पत्रकारों के बीच सामंजस्य कैसे बिठाना है वह भलीभांति जानते थे। समाचार पत्रों के कार्यालयों में भेंट-मुलाकातों का दौर मैंने स्वयं ने देखा है उस जमाने में पत्रकार कलेक्टर-पुलिस अधीक्षक या अन्य अधिकारियों के कार्यालयों में नहीं जाते थे बल्कि अधिकारी स्वयं समाचार पत्रों के दफ्तरों में जाते थे जिसके कारण पत्रकारों एवं अधिकारियों के पारिवारिक रिश्ते भी बनते थे। संबंधों में मिठास के कारण ही सरकारें अपनी उज्जवल छवि निर्मित करने में सफल होती थी और इसका सारा श्रेय जनसंपर्क विभाग और उसके अधिकारियों का ही होता था।

मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग में ही अतिरिक्त संचालक जे.पी. कौशल, अरविन्द चतुर्वेदी, ब्रजभूषण सिंह, एम.ए. खान, रामस्वरूप माहेश्वरी, एल.एस. बघेल, सुशील त्रिवेदी, पुष्पेन्द्र शास्त्री, पी.डी. पुराणिक, रविन्द द्विवेदी एवं उनके पुत्र ब्रजेन्द्र द्विवेदी जैसे अधिकारी हुआ करते थे जो वास्तव में प्रशासन और पत्रकारों के बीच सेतू का ही काम करते थे।

‘काल’ के साथ पत्रकारों का कुनबा बढ़ता गया, कुछ काली भेड़े भी इसमें घुस आयी जिसके फलस्वरूप वातावरण प्रदूषित हो गया। जमीन से दो फीट ऊपर चलने वाले पत्रकारों की फौज ने पत्रकारिता धर्म को दरकिनार कर दिया। जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों ने भी अपना चोला बदल लिया। लिखने-पढऩे की क्षमता के स्थान पर तिकड़मबाज, चापलूस, षडय़ंत्रकारी लोग, नेताओं के प्रति समर्पित लोग पदों पर आसीन होने लगे। इन अधिकारियों ने मोटी तनख्वाह वाली कुर्सियों पर कब्जा जमा लिया। पत्रकारों के बीच वैमनस्यता कैसे फैलायी जाय इसमें अपना सारा कौशल दिखाने लगे।

अँग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति का अनुसरण करने में सिद्दहस्त जनसंपर्क अधिकारी ही प्रशासनिक अधिकारियों की नजर में उत्कृष्ट माना जाने लगा। क्योंकि यदि पत्रकार बिरादरी एकजुट हो गयी तो किसी भी राजनेता या नौकरशाह का उस पर नियंत्रण करना आसान नहीं होगा। पत्रकार भी अपनी गरिमा छोडक़र अधिकारियों के कार्यालयों में दस्तक देने लगे। शासन की छवि बनाने की जगह ध्यान व्यक्तिगत छवि बनाने की ओर फोकस हो गया। उम्मीद की जाना चाहिये कि पत्रकारिता की गिरती साख संवेदनशील मुख्यमंत्री जी के निर्देश के बाद और गिरने से संभलेगी।

जय महाकाल

– अर्जुन सिंह चंदेल

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