दैनिक अग्निपथ के पितृ पुरुष एवं संस्थापक मूर्धन्य पत्रकार ठाकुर शिवप्रताप सिंह जी 29 वर्ष पूर्व आज ही के दिन 11 दिसंबर 1994 को इस दुनिया से महाप्रयाण कर गये थे। समय की गति बहुत तेज होती है लगता ही नहीं कि 29 वर्षों का एक लम्बा समय बिना उनके शरीर की उपस्थिति के गुजर गया है। ऐसा लगता है बस दो-चार वर्षों की बात ही है। भले ही पूज्य पिताजी की भौतिक उपस्थिति इस जगत में ना हो परंतु उनकी सूक्ष्म मौजूदगी का एहसास हर पल महसूस होता है। उनकी कर्मस्थली दौलतगंज स्थित अग्निपथ भवन का हर कण जिसे उन्होंने श्वेत श्रम की बूँदों से सींचा था उनके होने का एहसास कराता है।
उत्तरप्रदेश के जिला रायबरेली के एक बेहद छोटे और पिछड़े गाँव चंदेल नगर में जन्म लेने के बावजूद पूरे भारत में पत्रकारिता की जो अलख पिताजी जी ने जलायी थी उसकी खुशबू ने कलकत्ता, मुम्बई, दिल्ली, नागपुर, अकोला, अजमेर, इंदौर जैसे शहरों को प्रभावित किया। सारे देश में घुमन्तु पत्रकार की भूमिका का निर्वहन करने के पश्चात उनका मन मृत्युलोक के राजा भोलेनाथ की नगरी में ऐसा रमा कि वह सदा-सदा के लिये यहीं के होकर रह गये। दैनिक भास्कर (उज्जैन संस्करण), दैनिक संग्राम नवज्योति, अग्निबाण जैसे समाचार पत्रों के विकास में नीव के पत्थर की भूमिका निभाते हुए उन्हें ‘अर्श’ पर पहुँचाया।
मृत्यु के 5 वर्षों पूर्व जीवन भर धन्ना सेठों की नौकरी पश्चात उन्होंने स्वयं के समाचार पत्र ‘दैनिक अग्निपथ’ का प्रकाशन प्रारंभ किया और असीम संतोष की अनुभूति प्राप्त की। पिताजी ने पत्रकारिता के किसी विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त नहीं की थी पर ईश्वर प्रदत्त कलम का जादू उन्हें प्राप्त था। उन्हें लोह लेखनी का धनी कहा जाता था। उनकी कलम की तीक्ष्ण धार के आगे बड़े-बड़े बाहुबलियों, भ्रष्ट राजनेताओं, आततायियों, धन्ना सेठों, मदांध अधिकारियों को घुटनों के बल बैठना पड़ता था।
लगातार कुछ नया करने, सतत अध्ययन और दीर्घ अनुभव ने ठाकुर शिवप्रताप सिंह जी को पत्रकारिता के एक विश्वविद्यालय के रूप में तब्दील कर दिया था। वह पत्रकारिता के आकाश में उसी तरह चमकते थे जिस तरह अग्नि में तपकर सोना कुंदन बनकर चमकता है। अग्निबाण हो या फिर अग्निपथ पिताजी की पत्रकारिता की कक्षा में पढक़र आज अनेक पत्रकार शहर, प्रदेश, देश में सच्ची पत्रकारिता का कत्र्तव्य निभा रहे हैं।
आज से 37 वर्षों पूर्व मैंने भी एक अबोध छात्र के रूप में उनके चरणों में बैठकर पत्रकारिता का ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ सीखा था तब मैंने भी किसी स्कूल या विश्वविद्यालय से पत्रकारिता या हिंदी की कोई विशेष पढ़ायी नहीं की थी। पर जब जीवन में पिता ही गुरु के रूप में प्राप्त हो जाय तो जीवन धन्य मानना चाहिये। हम पाँचों ही भाई इस मायने में सौभाग्यशाली रहे कि हमें ‘पिता और गुरु’ एक ही व्यक्ति में प्राप्त हुए।
शनै: शनै: मैं निरंतर अभ्यास से हिंदी और पत्रकारिता का एक अच्छा विद्यार्थी बनने में सफल हुआ जो आज भी वरिष्ठ नागरिकों की श्रेणी में आने के पश्चात भी पत्रकारिता का छात्र ही हूँ। पिताजी का ज्ञान तो अद्भुत था वह चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे। संसार के किसी भी देश की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर उनके चर्चा की जा सकती थी वह ज्ञान का सागर थे। अग्निपथ एवं चंदेल परिवार के लिये यह गर्व की बात है कि हम ऐसे पिता की संतान है जिसने इस संसार में जीवन जीने के सच्चे अर्थों को साबित किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में एक ईमानदार सच्चे पत्रकार की सही परिभाषा इस समाज को दिखायी। पत्रकारिता के माध्यम से जीवन का श्रेष्ठ इस समाज को दिया और चुनौतीपूर्ण कर्म का निर्वहन करने में परिवार की सुख-सुविधाओं का माया मोह भी आड़े आने नहीं दिया।
आज की पत्रकार पीढ़ी को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि इतने मूर्धन्य पत्रकार एवं अनेक समाचार पत्रों में संपादक रहने के बावजूद भी पूज्य पिताजी हम पाँचों भाईयों, दो बहनों को ‘दून’ स्कूल या कान्वेन्ट स्कूलों में क्यों नहीं अध्ययन करवा सके, हम भाई-बहनों में से कोई आई.ए.एस. या आई.पी.एस. अधिकारी क्यों नहीं बन सका? फिर अपने को चेतन अवस्था में लाकर सोचता हूँ शायद फिर उज्जैन के पुराने शहर को नये शहर से जोडऩे वाले सेतू का नाम मूर्धन्य पत्रकार ठाकुर शिवप्रताप सिंह के नाम से नहीं हो पाता। समाज ने भी पिताजी के सदकर्मों का मूल्य हमारे परिवार को इस तरह के सम्मान से वापस लौटाया है। शायद यह देश और प्रदेश का पहला सेतू है जिसका नामकरण किसी पत्रकार के नाम से है। यह सम्मान अग्निपथ और चंदेल परिवार को अपना सीना ‘५६’ इंच का करने का अधिकार देता है और हमें हर पल पत्रकारिता के उच्च मूल्यों का निर्वहन करने की प्रेरणा भी देता है।
पिताजी की 29वीं पुण्यतिथि पर अग्निपथ एवं चंदेल परिवार की ओर से उन्हें शत्-शत् नमन