उज्जैन, अग्निपथ। महान योद्धा वीर दुर्गादास राठौड़ की पुण्य तिथि पर शुक्रवार को अभा क्षत्रिय महासभा ने कार्यक्रम आयोजित कर पुष्पांजलि अर्पित की। वीर दुर्गादास राठौड़ जी की छतरी पर शुक्रवार को अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री अनिलसिंह चंदेल, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य ठाकुर हरदयालसिंह एडवोकेट एवं मलखानसिंह दीक्षित, अनिलसिंह राजपूत, अर्जुनसिंह सिकरवार, अनूपसिंह राणा आदि ने पुष्पमालाए एवं पुष्पांजलि अर्पित कर पुण्यस्मरण करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अतिथियों ने कहा कि आज भी मारवाड़ के गाँवों में बड़े-बूढ़े लोग बहू-बेटी को आशीर्वाद स्वरूप यही दो शब्द कहते हैं कि
माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास,
बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश
अर्थात् हे माता! तू वीर दुर्गादास जैसा पुत्र जन्म दे जिसने मरुधरा (मारवाड़) को बिना किसी आधार के संगठन सूत्र में बांध कर रखा था।
औरंगजेब के कुटिल विश्वासघात की भेंट चढ़ चुका था। जनता भी कठोर दमन चक्र में फंसी थी। सर्वत्र आतंक लूट-खसोट, हिंसा और भय की विकराल काली घटा छाई थी। ऐसी संकटमय स्थिति में वीर दुर्गादास राठौर के पौरुष और पराक्रम की आंधी चली।
मारवाड़ आजाद हुआ और खुले आकाश में सुख की सांस लेने लगा। दुर्गादास एक ऐसे देशभक्त का नाम है जिनका जन्म से मृत्यु पर्यंत संघर्ष का जीवन रहा। दुर्गादास का जन्म 13 अगस्त 1638 को जोधपुर रियासत के गाँव सालवां कलां में हुआ । जंन्म से ही संघर्षों का सामना करते हुए जिस अजीतसिंह को पाल पोसकर दुर्गादास ने मारवाड़ का राजा बनाया ।
दुर्गादास की स्वराज्य भक्ति। मारवाड़ की मंगल कामना करते हुए दुर्गादास ने अवंतिकापुरी को प्रस्थान किया और वहीं, क्षिप्रा नदी के तट पर अंत तक सन्यासीवत् जीवन व्यतीत किया। क्षिप्रा नदी के तट पर बनी दुर्गादास की छत्री (समाधि) गर्व के साथ आज भी उस महान पुरुष की वीरता और साहस की कहानी कह रही है। वह ऐसे कठोर तप की श्रेष्ठ कहानी है जो शिशु दुर्गादास की उसकी माँ की छत्रछाया में चरवाहे के सिरकाटने व जसवंतसिह के अंगरक्षक के रुप में शुरू होती है। दुर्गादास को वीर दुर्गादास बनाने का श्रेय उसकी माँ नेतकंवर भटियाणी को ही जाता है जिसने जन्मघुट्टी देते समय ही दुर्गादास को यह सीख दी थी कि “बेटा, मेरे धवल (उज्ज्वल सफेद) दूध पर कभी कायरता का काला दाग मत लगाना।
मारवाड़ का रक्षक
कार्यक्रम में वक्ताओं ने कहा कि जन्म से ही माँ के हाथ से निडरता की घुट्टी पीने वाला दुर्गादास अपनी इस जन्मजात निडरता के कारण ही महाराजा जसवंतसिंह का प्रमुख अंगरक्षक बन गया था और यही अंगरक्षक आगे चलकर उस समय संपूर्ण मारवाड़ का रक्षक बन गया था ,जब जोधपुर के महाराज जसवंतसिंह के इकलौते पुत्र पृथ्वीसिंह को औरंगजेब ने षड्यंत्र रचकर जहरीली पोशाक पहनाकर मार डाला। इस आघात को जसवंतसिंह नहीं सह सके और स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गए थे । इस अवसर का लाभ उठाते हुए औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा और देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के मारे शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। सारे हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया गया था।
संकट का सामना
वक्ताओं ने कहाकि ऐसे संकटकाल में दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंतसिंह की विधवा महारानी महामाया तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी राजा अजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। तो औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकडऩे के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा।
यही नहीं उसने दुर्गादास व अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी। इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहाँ राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकडऩे के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बरछी कराल-काल की भांति रणांगण में मुंडों का ढेर लगा देती थी।
पूरे परिवार का बलिदान
कार्यक्रम में बताया गया कि दुर्गादास के सामने समस्याएँ ही समस्याएँ थीं। सबसे बड़ी समस्या तो जहाँ भावी राजा के लालन-पालन व पढ़ाई-लिखाई की थी वहाँ उससे भी बड़ी समस्या उनको औरंगजेब की नजरों से बचाने व उनकी सुरक्षा की थी। इतिहास साक्षी है कि दुर्गादास ने विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी वे संपूर्ण व्यवस्थाएँ पूर्ण की थीं कि भले ही इस कार्य के संपादन में दुर्गादास को अपने माँ -भाई-बहनों, यहाँ तक कि पत्नी तक का भी बलिदान देना पड़ा। अरावली पर्वत श्रृंखला की वे कंदराएँ उन वीर और वीरांगनाओं के शौर्यपूर्ण बलिदान की साक्षियाँ दे रही हैं, जहाँ अजीत सिंह की सुरक्षा के बदले दुश्मनों से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने भाई जसकरण पोते अनोपकरण और माँ को बलिदान कर दिया था।
कठोर ध्येय साधना
कार्यकम में बताया गया कि छप्पन के पहाड़ों का प्रत्येक पत्थर और घाटियाँ दुर्गादास के छापामार युद्ध की गौरवगाथा कह रहे हैं। जिन पत्थरों और घाटियों ने कर्मवीर दुर्गादास को देखा था, वे मानो आज भी बता रहे हैं कि दुर्गादास ने आंखों को नींद और घोड़े को विराम नहीं दिया। वे राजपूतों को संगठित करने में 24 में से अठारह घंटे घोड़े की पीठ पर ही गुजार देते थे। वह भी एक-दो दिन या एक-दो माह नहीं, पूरे 20 वर्षों तक उनके जीवन का ऐसा कठोर क्रम बना रहा । डा.नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास नामक पुस्तक में इस घटना का चित्रण इस प्रकार किया है-
तखत औरंग झल आप सिकै, सूर आसौत सिर सूर सिकै, चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां, सैला असवारां अन्न सिकै।।
अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। ऐसी कठोर ध्येय साधना करने वाले दुर्गादास ने अपना संपूर्ण यौवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित कर दिया था। अंतत: स्वतंत्रता देवी इस कर्मयोगी पर प्रसन्न हुई। जोधपुर के किले पर फिर केसरिया लहरा उठा था और दुर्गादास ने अपनी चिर प्रतीक्षित प्रतिज्ञा को स्व.महाराजा जसवंतसिंह के एकमात्र पुत्र अजीतसिंह का अपने हाथों से राजतिलक कर पूरा किया था। धन्य है वीरवर दुर्गादास जिन्होंने उस वक्त भी अजीतसिंह को आशीर्वाद और मंगलकामना करते हुए ही वन की ओर प्रस्थान किया था।