भगोरिया को लेकर मेरी कलम की शुरुआत से लेकर टेढ़ी नजरे करने तक आज भी समझ नहीं आया की आखिर भगोरिया या है। 80 से 90 के दशक के लेखकों, पत्रकारों, प्रशासन सहित राजनीतिकों ने इसे वर्ष दर वर्ष कभी भगोरिया का उदगम भगोर से तो कभी झबुआ रियासत से माना
भगोरिया का लिखित इतिहास नहीं होने के चलते होली के एक सप्ताह पूर्व अंचलों में मनाए जाने वाले इस हाट बाजार को लेकर अलग-अलग लेख प्रकाशित होते रहे। शासन प्रशासन भी जिसकी ढपली उसका राग अलापते रहे। फलत: भगोरिया की भाव भंगिमा वर्ष दर वर्ष नए सिरे से प्रतिपादित होने लगी। भगोरिया को लेकर 80 के दशक से वर्तमान तक का इतिहास देखें तो अब तक किसी की भी कलम यही लिखती आयी कि भागोरिया प्रणय पर्व है, भगोरिया गांव खेड़ों का होली से एक सप्ताह पूर्व आने वाले हाट बाजार गांव खेड़ों का प्रेम दिवस है। भगोरिया में प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को पसन्द करते युवती जिसके हाथों से पान खा ले वह युवक उसको भगा ले जाता है। इसी के चलते इन त्योहारिये हाट बाजारों का नाम भगोरिया पड़ा।
वहीं इतिहासकारों और साहित्यकारों की कलम ने भगोरिया का उदगम भगोर से लेकर राजशाही घरानों से बताया, किन्तु आश्चर्य यह कि भगोरिया का ज्ञात इतिहास किसी के पास प्रामाणिक रूप से नहीं। नतीजा होली के पूर्व जिस उत्साह उमंग से इन हाट बाजारो में ढोल मांदल की थाप, झूले चकरियों (कभी खातलिया कहीं जाने वाली) का आनंद, तो कभी होठों को लिपिस्टिक की लाली देने के फेर में पान चबाना ही इन हाट बाजरो की रौनक थी।
होली से पूर्व अंचलवासी अपनी फसलों यानी खेती किसानी से न केवल फ्री हो जाते वरन होली के एक सप्ताह पूर्व से लेकर होली के दस दिन यानी दशामाता तक उत्साह, उमंग और आपसी से महुआ की महक तथा ताड़ी के तेवर में अपने अंदाज में थिरकते थे और आज भी थिरकते हंै।
भगोरिया में भगा ले जाने जैसी घटनाएं बीते साढ़े तीन दशक में जब से कलम चलाना शुरू हुई तब से एक भी घटना प्रकाशित करने को नहीं मिली। हां कुछ आपराधिक घटनाएं जरूर हुई, किन्तु यह घटनाएं आपसी विवाद, जमीन के झगड़ों से लेकर आपसी रंजिश की ही दिखाई दी, जो अब भी जारी है।
पूर्व में आवागमन के साधनों के अभाव में साप्ताहिक हाट बाजारो में ही मिलना होता था। चाहे पल खुशी का हो या रंजिश का हो। विशेष कर वर्ष भर में होली से पूर्व मानसून की दशक तक पूर्णत: फुर्सत का यही समय रहता था। इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण पुलिस रेकॉर्ड से लेकर प्रशासनिक रेकॉर्ड में संभवत: दर्ज होगा। खैर बात भगोरिया को लेकर है तो सदियों से चला आ रहा यह उत्साह, उमंग और उल्लास का पर्व किन्ही किवदंतियों पर आधारित नहीं है। इसे जिसने जब जैसा चाहा वैसा अपनी शेखी बघारने में उपयोग किया।
इनमें चाहे राजनीतिक दल हो, उनके जनप्रतिनिधि हों, सरकार हो या फिर उनके प्रशासनिक ह्रश्वयादे सभी ने अपनी रोटियां सेंकने के जमकर प्रयास किये और कलम उनकी पिछलग्गू बनी रही। अपनी टीआरपी बढ़ाने में एक बार पुन: भगोरिया की आहट शुरू हो चुकी है। ढोल मांदल बाहर आ गए हैं। टेसू के मदमस्त फूल परवान पर है तो आम के बाद महुआ बौराया हुआ है, ताड़ी ने रस उगलना शुरू कर दिया। इन सब के बीच ठेठ गावखेड़ा के बच्चों, बुजुर्ग से लेकर युवक-युवतियां बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
इधर अपनी शेखी बघारने वालो ने अपना राग अलापने शुरू कर दिया भगोरिया को लेकर। टेढ़ी नजऱ आप सभी उत्साह, उमंग, उल्लास के इस पर्व को सदियों से चली आ रही परपरा बना रहने दे, जिस प्रकार होली बाद गल, गढ़, चूल की अब भी बनी है। हे भगवान इस बार का भगोरिया ही नहीं आने वाले भगोरिया पर भी न राजनीतिक छाया पड़े और न भगोरिया प्रशासनिक व्यवस्था का गुलाम बने। पर्व है पर्व बना रहे उत्साह, उमंग, उल्लास का