कोरोना महामारी के दौर में लोगों का भरोसा और आशा की किरणें सिर्फ अस्पतालों पर टिकी है और ऐसे में ही अस्पतालों की भूमिका संदेह के घेरे में नजर आ रही है। रोज किसी न किसी अस्पताल से ऐसी खबर आती है जिससे अस्पतालों की भूमिका पर संदेश उठने लगता है।
खासकर माधवनगर और चरक अस्पताल की व्यवस्थाएं जब चरमराती है तो सरकारी नुमाइंदों से विश्वास उठने लगता है। एक ओर तो प्रशासन और सरकार के प्रतिनिधि (इन्हें जनप्रतिनिधि कहना उचित नहीं) यहां चाक-चौबंद व्यवस्थाओं का दावा करते हैं, दूसरी ओर खबरे आती हैं कि पॉजीटिव कोरोना परिजन का इलाज कराने के लिए आम आदमी एक-एक लाख रुपए खर्च कर इंजेक्शन अस्पताल को उपलब्ध करा रहा है, फिर भी मरीज की मौत हो जाती है।
मौत के बाद ये सरकारी नुमाइंदेे मरीज की मौत कोरोना से नहीं होकर सामान्य बताते हैं। मौेत को मजाक बनाने वाले इन निर्दयी नुमाइंदों के खिलाफ आंदोलन करना पड़ता है जब मौैत के सही कारण का प्रमाण मिलता है। आधी रात को अस्पताल पहुंचने वाले लोगों को चिकित्सा सुविधा तो दूर डॉक्टर या स्टॉफ भी नहीं मिलता। ऐसेे हालात नहीं बदलने वाले जिम्मेदारों को डूब मरना चाहिए।