उज्जैन, अग्निपथ। मालवांचल में गोबर फूल पत्तियां एवं रंगों से भिन्न-भिन्न त्यौहारों पर विभिन्न आकृतियां बनाकर प्रदर्शित की जाती है। उन्हें साझी या संजा के नाम से जाना जाता है। यह लोक परम्परा एवं संस्कृति की प्रतीक संजा प्राय: लुप्त सी होती जा रही है। मालवांचल की संस्कृति की झलक लोक कला के माध्यम से देश में ही नहीं विदेशों में भी अपना स्थान बना लिया है।
संजा/साझी बनाना भी एक कला है। अमेरिका, लंदन एवं ऑस्टे्रलिया के म्यूजियम में मालवांचल की संजा आज भी शोभा बढ़ा रही है। मालवांचल में छोटी-छोटी कन्याओं द्वारा विवाह के पूर्व तक प्रति वर्ष सोलह दिन तक संजा/साझी बनाई जाती है। मालवा तथा निमाड़ के लोकांचलों के अलावा भी यह उत्सव तथा परम्परा के अनुसार संजा रूपों में राजस्थान में संझमा, महाराष्ट्र में गुलाब बाई, हरियाणा में साझी, ब्रज में सांझी के रूप में सम्पन्न किया जाता है।
एक कथा के अनुसार यह कहा जाता है कि कृष्ण की भक्ति में लीन एक संन्यासी किसी मन्दिर के अहाते में ध्यान मग्न बैठा था, तभी वहां पर कुछ खेलती हुई कुँवारी कन्याएं आईं। कुँवारी कन्याओं ने संन्यासी का उपहास किया और पास ही पड़ा हुआ गोबर उस संन्यासी के ऊपर छिटक दिया। संन्यासी का ध्यान टूट गया और क्रोध में आँखें खोलकर श्राप देने वाले ही थे कि अचानक एक बालक वहां पर उपस्थित हो गया।
बालक का ललाट एवं तेज देखता रहा। मनमोहक एवं अद्भुत सुन्दर बालक में संन्यासी को विश्वास हो गया कि वह बालक कृष्ण भगवान ही है, जिनकी मैं साधना करता रहा हूँ। कुछ ही समय में बालक अन्तर्ध्यान हो गया। लेकिन क्रोध में संन्यासी ने कन्याओं से कहा कि तुमने मेरे ऊपर गोबर छिटकर मेरा ध्यान भंग किया है, मेरा मजाक उड़ाया है। अत: तुम्हें 16 दिन तक प्रतिवर्ष भाद्र मास की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस तक दीवार पर गोबर से आकृतियां अंकित करना होगी। इससे आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होगी। रूपवान, गुणवान पति और आनन्द प्राप्त होगा।
एक अन्य कथा के अनुसार साँझी नाम की एक कुँवारी कन्या को एक राक्षस ने अपहरण कर लिया। 16 दिन के पश्चात राक्षस ने कन्या का वध कर डाला। तभी अपनी एक सहेली को स्वप्न दिया और कहा कि मेरा बेरहमी से वध कर दिया है। मेरी आत्मा भटक रही है। मैं इस लोक से परलोक में जाना चाहती हूँ। अत: तुम 16 दिन तक मेरे नाम से दीवारों पर भिन्न-भिन्न आकृति गोबर से मांढकर मुझे याद किया करोगी तो सभी इच्छाएं पूर्ण होंगी।
पितृ पक्ष अथवा सोलह श्राद्ध के प्रथम दिवस से ही पूजा और आस्था की यह अनुष्ठान पूर्ण उल्लास और तन्मयता के साथ मनाया जाता है। प्रथम दिवस पर पूनम का पाटला, चाँद सूरज, तारे, दूसरे दिन बिजोरा, तीसरे दिन घेवर या पंखा, चौथे दिन चौपड़, पाँचवें दिन कुंवारी, छटे दिन छबड़ी, सातवें दिन स्वस्तिक, आठवें दिन आठ पंखुडिय़ों वाला फूल, नवे दिन डोकरा, दसवें दिन जलेबी की जोड़, ग्यारहवे दिन केले का पेड़, बारहवे दिन बंदनवार मोर मोरनी, तेरहवे दिन से किला कोट में घुघरा खोडया ब्राह्मण, आदमी, गाड़ी, चाँद सूरज जाड़ी जसोदा, पतली पेमा, हाथी, घोड़ा मोर आदि आकृतिया रंग बिरंगी पत्तियाँ गिलतोड़ी के फूल, चांदनी के फूलों की पंखुरियाँ चिपकायी जाती है।
अंतिम दिन कन्याएं सभी संजा आकृतियों को एकत्र करके रख देती है तथा दीवार गोबर से लीपकर स्वस्तिक बनाकर संजा को बिदा कर देती है। प्रतिदिन कन्याओं द्वारा गुड़, शक्कर, भुट्टे के दाने, मूंगफली के दाने, ककड़ी आदि का भोग लगाकर आरती उतारी जाती है। जिन कन्याओं का विवाह हो जाता है, वे इस उत्सव को मनाने मायके में आती है तथा अमावस को 16 छोटी टोकनियों में गेहूं (सिके हुए) गुड़ भरकर वितरित करती हैं।