-प्रशांत अंजाना
उपयोग…
शासन-प्रशासन एक ऐसा तंत्र है। जिसमें शामिल हर अधिकारी को अपनी उपयोगिता का भान रहता है। मगर सेवानिवृत्ति तक पहुंचते-पहुंचते अपने उपयोग पर अधिकारी खुद ही प्रश्न करने लगते हंै। खासकर तब, जब सेवानिवृत्ति के 2 महीने शेष बचे हो। ऐसे में ट्रांसफर होने पर अधिकारी अपनी ही फेयरवेल पर यही प्रश्न उठाता है। जैसे कि अपने 7 जिलों के खुशमिजाज जी ने उठाया था। फेयरवेल चल रही थी। तब अपने उद्बोधन में यही बोला कि…पता नहीं मुझे राजधानी क्यों भेजा? मेरी वहां पर अब उपयोगिता क्या है? यह अब जाकर समझूंगा? अपने खुशमिजाज की इस साफगोई अभिव्यक्ति पर हम तो बस शुभकामनाएं देते हुए, अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हैं।
सास-बहू…
शीर्षक पढक़र पाठक यह अंदाजा नहीं लगाये। हम किसी घर की सास-बहू की बात कर रहे हैं। जिनके झगड़े जगजाहिर है। हम तो कोठी पर हमेशा सास-बहू की भूमिका निभाने वाले 2 कार्यालयों की बात कर रहे हैं। दोनों कार्यालय आमने-सामने है। कोठी की सीढिय़ा चढ़ते ही। कोठी का इतिहास रहा है। सास-बहू के कार्यालय हमेशा पॉवर को लेकर लड़ते रहे हैं। मगर, अपने खुशमिजाज जी और उम्मीद जी के बीच कभी ऐसी नौबत नहीं आई। यह बात खुद अपने उम्मीद जी ने फेयरवेल में कही। जिसे सुनकर सभी चेहरों पर मुस्कुराहट थी। बात 100 फीसदी सच भी है। पहली दफा सास-बहू में टकराव की जगह मेलजोल कोठी के गलियारों में नजर आया। अब पुरानी सास रवाना हो गई है। नई सास का आगमन हो चुका है। देखना यह है कि अब आगे रिश्ते कैसे रहते है? तब तक हम अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हैं।
विद्वान…
एक बार फिर बात उसी फेयरवेल की है। जहां अपने उम्मीद जी ने सास-बहू के रिश्तों का हवाला दिया था। अब बारी थी अपने खुशमिजाज जी की। माईक संभाला। बेहतरीन वक्ता है। तो उन्होंने एक कविता सुनाई। जिसका सार यही था कि…नौकरशाह बनते ही, हर काम सुमंगल हो जाता है। बस एक फोन करो। काम पूरा हो जाता है। इसके बाद उन्होंने अपने उम्मीद जी की तारीफ करी। उनका कहना था कि…अपने उम्मीद जी खुद को पूर्ण विद्वान नहीं समझते हैं। सलाह दो तो उस पर अमल भी करते हैं। ऐसे लोग बिरले ही मिलते है। मतलब…सास-बहू में समन्वय बना रहता है। इसके अलावा अपने पड़ोसी जिले के रहस्यमय मुस्कान की भी तारीफ कर गये। अब बाकी जिले के मुखिया परेशान है। दो लफ्ज हमारे लिए भी बोल देते। मगर ऐसा नहीं हुआ। जिसमें हम क्या कर सकते हैं। हम तो बस अपनी आदत के अनुसार चुप रह सकते हैं।
ऑन-स्पाट…
नोटो पर रंग लगवाकर, पकडऩे वाले विभाग से बचने का सही तरीका क्या है। ऑन- स्पाट सौदा करो-माल जेब में रखो और घर लौट आओ। अपने चरणलाल जी की तहसील में आजकल यही हो रहा है। ग्रामीण विभाग से जुड़े मुखिया है। जो सुबह-सुबह फोन करते हंै। निरीक्षण पर आ रहा हूं। 8 से 9 के बीच पहुंच जाते हैं। जांच करते है। दोष निकालते हैं। फिर 25 से 50 हजारी की डिमांड करते हैं। अगर सामने वाला यह बहाना करें कि सुबह-सुबह कहां से लाये। तो आसपास के ढाबे पर लेकर जाते है। खाना खाते हंै। तब तक कहीं ना कहीं से इंतजाम हो जाता है। जेब गर्म होते ही मुखिया रवाना हो जाते है और रंगे हाथों पकडऩे वालो विभाग को खबर भी नहीं लगती। सब काम चुपचाप निपट जाता है। तो हम भी अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हंै।
पहलू…
किसी शायर ने खूब कहा है। रिश्वत के भी दो पहलू हैं/ लोगे तो फंसा देगी और दोगे तो छुड़ा देगी। अपने चरणलाल जी के क्षेत्र में यह अशआर खूब सुनाई दे रहा है। मामला वही ऑन-स्पाट से जुड़ा है। इसकी भनक अपने चरणलाल जी को भी लग गई। त्रैमासिक बैठक में उन्होंने इस मुद्दे को उठाया। बहस भी हुई। ग्रामीण मुखिया से। फिर बैठक 2 घंटे के लिए स्थगित हो गई। 4 बजे फिर बैठक शुरू हुई। मगर ऑन-स्पाट का मुद्दा गायब हो गया। अब तहसील में रिश्वत के पहलू की गूंज सुनाई दे रही है। जिसमें हम क्या कर सकते हंै। हम तो बस अपनी आदत के अनुसार चुप रहेंगे।
मदारी…
कहावत है। नाचे-कूदे बांदरी-माल मदारी खाये। इस कहावत की चर्चा आजकल वर्दी वाले खूब कर रहे है। घटना बहुचर्चित क्लाथ मार्केट के व्यापारी से जुड़ी है। जिसको वर्दी ने पकड़ा और श्रीकृष्ण की जन्मस्थली भेज दिया। 80 पेटी का मामला था। बंद आरोपी से मिलने एक खबरची पहुंचे। सोशल मीडिया वाले। जहां उन्होंने आरोपी को कुछ पट्टी पढ़ाई। जिसके चलते 20 हजारी सौदा हो गया। रकम भी मिल गई। अब चर्चा है कि…वर्दीवाली मैडम के नाम पर यह सौदा हुआ था। जिसमें वर्दी के हाथ तो कुछ नहीं लगा, मगर खबरची के मजे हो गये। तभी वर्दी वाले यह कहावत बोल रहे हंै। जिसका हमसे क्या लेना-देना। हमारा तो काम है, बस आदत के अनुसार चुप रहना।
डर…
कोठी के गलियारों में इन दिनों डर का माहौल है। खासकर भू-तल स्थित राजस्व कार्यालयों में। इस डर की वजह एक अधिकारी की वापसी है। जो अभी तक फिजूल-विभाग में बैठकर इंतजार कर रहे थे। अपनी वापसी का। जिनको कोठी के गलियारों में चुगलखोर के नाम से जाना जाता है। वैसे धर्म के ज्ञानी है। भाषा शैली भी लच्छेदार है। उनकी ज्ञान भरी बाते सुनकर, हर कोई पहली दफा प्रभावित हो जाता है। मगर जल्दी ही भ्रम टूट जाता है। कारण…चुगलखोरी की जो गंदी आदत है। अब अपने उम्मीद जी ने उनकी वापसी कर दी है। यही वजह है कि सभी अधिकारी अब डर रहे हैं। इसी डर के चलते चुप हैं। तो हम भी अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हैं।
इंतजार…
किसी फिल्म का गीत है। जिसका मुझे था इंतजार..जिसके लिए दिल था बेकरार…वो घड़ी आ गई। यह गीत इन दिनों कमलप्रेमी गुनगुना रहे हैं। खासकर अपने विकास पुरुष को चाहने वाले। आखिरकार लंबे सालों के इंतजार बाद मौका मिला है। जब दशहरा मैदान पर अपने पहलवान की जगह, विकास पुरुष सलामी लेंगे। इस वक्त का खुद, अपने विकास पुरुष को इंतजार था। जो अब पूरा होने जा रहा है। निश्चय ही यह नजारा देखने लायक होगा? क्योंकि कमलप्रेमी यह भी बोल रहे हैं कि…इस पल के साक्षी अपने पहलवान नहीं बनेंगे? देखना है कि विकास पुरुष के इंतजार के साक्षी अपने पहलवान बनते है या नहीं? तब तक हम अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हैं।
गूंज…
बाबा के दरबार में इन दिनों एक थप्पड़ की गूंज सुनाई दे रही है। घटना लगभग 4-5 दिन पुरानी है। जब यह थप्पड़ ड्यूटी पर तैनात कर्मचारी को पड़ा। मारने वाले युवा पुजारी है। जिनको, कर्मचारी के टोकने/रोकने पर गुस्सा आ गया। आव देखा ना ताव देखा। बस…थप्पड़ रसीद कर दिया। मगर जिनको थप्पड़ पडा, वह इस मामले को लेकर चुप है। तो हम भी गूंज का जिक्र करके, अपनी आदत के अनुसार चुप हो जाते हैं।
आक्रोश…
अपने ताऊजी को कभी किसी ने इतने आक्रोश में नहीं देखा। जितना वह 4-5 दिन पहले नजर आये। वह भी अपने पुत्र समान…पिस्तौल कांड के नायक पर। बदबूवाले शहर में तो यही चर्चा है। सुबह कुछ लोग मिलने पहुंचे थे। अपने ताऊजी को परेशानी के साथ सच से अवगत कराया। खासकर पिस्तौल कांड के नायक द्वारा की जा रही ज्यादती को लेकर। दोपहर बाद अपने पिस्तौल कांड के नायक पहुंच गये। कुछ आवेदन लेकर। बस…फिर क्या था। अपने ताऊजी ने अपना वह रूप दिखाया। जो आज तक किसी ने नहीं देखा था। खूब खरी-खोटी सुनाई। आरोप तक लगा दिया। आगे किसी भी काम को लाने से भी मना कर दिया। निधि को लेकर भी सवाल उठाये। ऐसी चर्चा बदबूवाले शहर में कमलप्रेमी चटकारे लेकर कर रहे है। अब सच-झूठ का फैसला खुद कमलप्रेमी कर ले। क्योंकि हमको तो आदत के अनुसार चुप रहना हैं।
सलाह…
मुफ्त की सलाह कोई मानता तो नहीं है। मगर, फिर भी दे रहे है। मानो तो आपकी मर्जी है, वरना हमारा क्या जाता है। 7 जिलों के नये मुखिया से जब मिलने जाये। तो गुलदस्ता लेकर नहीं जाये। बेकार में जेब ढीली होगी। इसके अलावा अपना चलायमान फोन भी बाहर छोडक़र ही जाये। ऐसा नियम कोठी के गलियारों में सुनाई दे रहा है। यह नियम अधिकारियों के लिए विशेष तौर पर है। अब सलाह माने या ना माने? मर्जी है आपकी। क्योंकि हम तो ऊपर ही लिख चुके हैं। मुफ्त की सलाह कोई मानता नहीं है। बाकी तो हमको आदत के अनुसार चुप ही रहना है।