दुनिया में जहाँ तक धरती पर लोग बसते हैं उनमें उत्सव धर्मी लोगों में ईसाई समुदाय के बाद शायद देश के ह्रदय प्रदेश मेरे मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र (धार, झाबुआ, अलीराजपुर, खरगोन, बड़वानी) के आदिवासी जनजाति का ही नंबर आता होगा। इन आदिवासी क्षेत्रों में देश के सबसे पवित्र त्यौहार होली को जो कि अमीर-गरीब के साथ सब लोग खेलते हैं, देश में एकमात्र होली ही ऐसा त्यौहार है जो पुरानी से पुरानी दुश्मनी और रंजिशों को प्यार में बदलने का माद्दा रखता है।
साहसी, बहादुर क्रांतिकारी टंटया भील (मामा) की जन्म और कर्म स्थली में निवास करने वाले आदिवासियों के घर-घर में वह आज भी नायक की तरह पूजे जाते हैं। बताया जाता है कि इस भगोरिया पर्व की शुरुआत धार के राजा भोज के समय में प्रारंभ हुयी। भील राजाओं कसुमन और बालून के समय यह भगोरिया मेले अस्तित्व में आये भील राजाओं की राजधानी भागोर में सर्वप्रथम यह मेले लगाये गये।
अनादि काल में भगोरिया हाटों की शुरुआत का उद्देश्य यह था कि आदिवासी आने वाले होली पर्व की पूजन सामग्री खरीदने के साथ युवक-युवतियाँ आने वाले गणगौर पर्व के बाद होने वाली शादियों के लिये सात श्रृंगार की वस्तुएँ भी मेलों में से खरीद सके। परंतु बाद में एक सुनियोजित तरीके से इन पवित्र भगोरिया मेलों को बदनाम करने की दृष्टि से यह प्रचारित कर दिया गया कि इन भगोरिया मेलों में से आदिवासी युवक जो युवती पसंद आती है उसे भगाकर ले जाते हैं।
आदिवासियों की उमंग, उल्लास और लोक संस्कृति के इस पर्व को प्रणय पर्व का नाम दे दिया गया। परंतु आदिवासी क्षेत्रों के जागरूक नागरिकों द्वारा विगत 10-12 वर्षों से निरंतर जागरूकता अभियान चलाकर इस दुष्प्रचार का खात्मा किया गया।
होली दहन के 7 दिनों पूर्व से जिन स्थानों पर साप्ताहिक हाटों का आयोजन होता है वहाँ पर भगोरिया मेले आयोजित किये जाते हैं। इन सात दिनों में मेरे मध्यप्रदेश का आदिवासी अंचल उत्सव की खुमारी में डूबा रहता है। इन 7 दिनों में आदिवासी खुलकर अपनी जिंदगी जीते हैं। पूरे परिवार के साथ लगने वाले भगोरियों का आनंद लेने जाते हैं, जमकर शराब, बीयर, ताड़ी का सेवन करते हैं और वापसी में मुर्गा घर ले जाना नहीं भूलते और हाँ इस भगोरिया की एक और विशेषता है कि आदिवासी जब परिवार के साथ इन मेलों में खरीददारी करता है तो वह दुकानदारों से मोल-भाव नहीं करता।
आपको हैरत होगी यह जानकर कि झूले वाले प्रति भगोरिया हाट में 50-60 हजार कमाकर जाते हैं। दोपहर 12 बजे के बाद लगने वाले इन मेलों में युवकों की अलग-अलग टोलियां सुबह से ही सजधज कर अपने-अपने गाँवों से टोलियों के रूप में मेले में पहुँचकर बाँसुरी, ढ़ोल, मांदल की थाप पर थिरकते हैं और नृत्य करते हैं हाँ बीते वर्षों में पारम्परिक परिधान की जगह अब लडक़े जींस और टी शर्ट पहनते हैं।
लड़कियाँ भी सजधज कर टोलियों के रूप में आती है और गौर करने वाली बात यह है कि हर टोली की डे्रस का रंग अलग होता है। युवतियों के पारंपरिक परिधान में बदलाव आया है। लड़कियाँ भी खूब सजधज कर पारंपरिक आभूषणों को धारण करती ही है साथ ही मेले में हाथ पर टेटू (गुदना) जरूर बनवाती है।
सारा संसार जब कोरोना से भयाक्रांत है मानव समाज लॉकडाउन की वजह से अपनेे-अपने घरों में कैद है। मौत का भय मनुष्य को डरा रहा है ऐसी विषम परिस्थिति में आदिवासी समाज वर्तमान में ही जीने का संदेश देकर उन्मुक्त होकर इन भगोरिया मेलों का आनंद ले रहा है।
ना कोई मास्क, ना सामाजिक दूरी और ना ही सेनेटाईजेशन बीते सात दिनों में इन मेलों में हजारों की भीड़ उमड़ी है। शासन-प्रशासन पुलिस मौन साक्षी रहे। आदिवासियों का स्व अनुशासन जिसके कारण कोई घटना-दुर्घटना, लड़ायी-झगड़ा नहीं हुआ। डर के आगे जीत में विश्वास रखने वाले आदिवासी कल की कभी चिंता नहीं करते बेहद परिश्रमी आदिवासियों भाइयों को दिल से सलाम जो हर ओर फागुन और प्यार का रंग बिखरते हैं।