सोश्यल मीडिया पर बहुत वायरल हो रहे इस संदेश ने कि
हम अस्पतालों के लिये लड़े ही कब थे?
हम तो मंदिर, मस्जिद के लिये लड़े जो आज बंद है।
पढक़र मन को अंदर तक झकझोर डाला और भारत के एक आम और जवाबदार नागरिक होने के नाते आत्मग्लानि भी हुयी सचमुच आजादी के 75 वर्षों बाद भी हमने आज तक स्वास्थ्य और शिक्षा के बारे में सोचा क्यों नहीं।
देश की आजादी के बाद कई राजनैतिक दलों की सरकारें आयीं और गयीं, नेता लोग कभी काँग्रेस का, कभी समाजवादी बनकर, कभी जनता दल, कभी भारतीय जनता पार्टी और अन्य-अन्य दलों का मुखौटा लगाकर आये और बरगलाकर कभी गरीबी हटाने के नाम पर, कभी आपातकाल के विरोध के नाम पर, कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर, कभी धारा 370 के नाम पर हमसे वोट ले गये और हम पर पिछले 74 वर्षों से राज कर रहे हैं।
कभी भी भारत के किसी भी राजनैतिक दल ने भारत में शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्रों में सुधार कर उसका स्तर बढ़ाने का मुद्दा ना तो उनके घोषणा पत्र में रखा और ना ही कभी इस मुद्दे पर भारत में चुनाव हुए और हम भारतीयों ने भी कभी इसकी जरूरत नहीं समझीं। भारतीय मतदाताओं ने भी इतने चुनावों में इसका महत्व नहीं समझा। सारी दुनिया के साथ जब भारत पर भी कोरोना का हमला हुआ तब हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुली। आबादी के मामले में हम जरूर जहाँ 1947 में 34.5 करोड़ थे जो अब बढक़र 138 करोड़ हो गये हैं। पर दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2018 की मेडिकल जर्नल लैसेंट द्वारा किये गये एक अध्ययन की रिपोर्ट अनुसार स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच और इनकी गुणवत्ता (एच.क्यू.ए.) के मामले में हमारा भारत 195 देशों में 145वीं पायदान पर है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारा देश बांग्लादेश, भूटान से भी पीछे है। हमसे अधिक जनसंख्या वाला चीन हमसे बेहतर स्थिति में है। स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच और इनकी गुणवत्ता के मामले में दुनिया में जो देश शीर्ष पाँच पर है उनमें आइसलैंड (97.1), नार्वे (96.6), नीदरलैंड (96.1), लक्जमबर्ग (96) और फिनलैंड, आस्टे्रलिया (95.9) अंकों के साथ है। जिन 5 देशों में (एच.क्यू.ए.) की सबसे खराब स्थिति है उनमें अफ्रीकन गणराज्य (18.6),, सोमालिया (19), गिनी बिसाउ (23.4), चाइ (25.4) और अफगानिस्तान (25.9) है।
मेडिकल जर्नल लैसेंट की इस रिपोर्ट का समर्थन ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज ने भी किया है। एक और मुद्दे स्वास्थ्य जीवन प्रत्याशा के मुद्दे पर भी हमारे देश का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। वर्ष 2019 में वल्र्ड इकॉनामी फोरम द्वारा किये गये 141 देशों के अध्ययन में हमारा नंबर 109वां है हाँ इतना जरूर है कि सन् 1947 में जो जीवन प्रत्याशा की आयु 32 वर्ष थी वह वर्तमान में बढक़र 66.8 वर्ष हो गयी है। देश में अभी भी 10 लाख मौतें सिर्फ इस कारण से हो रही है कि हम पर्याप्त रूप से उन तक स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं।
दुनिया के मात्र 13 ही अमेरिका सहित ऐसे देश हैं जहाँ पर किसी बड़े संक्रमण रोग से निपटने के लिये पर्याप्त सुविधाएँ हैं। वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक में भी हमारा नंबर 195 देशों में 57वां है। प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी ने भले ही दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना ‘आयुष्मान भारत’ की शुरुआत की हो लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने वाले देशों की सूची में अभी भी हमारा देश बहुत पीछे है। कुछ वर्षों पूर्व सिएटल स्थित ‘द लंसेट’ में प्रकाशित की गयी रिपोर्ट में जिसमें दुनिया के देशों में भारत 158वें पायदान पर है।
अभी हाल ही में विश्व बैंक की जारी स्वास्थ्य सूचकांक (हेल्थ इंडेक्स) में 195 देशों की सूची में भारत का स्थान 145वां बताया गया था। विश्व बैंक की रिपोर्ट अनुसार दक्षिण एशियाई देशों में स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत से कहीं ज्यादा खर्च होता है। मालदीव में जी.डी.पी. का 13.7 प्रतिशत, अफगानिस्तान में 8.2 प्रतिशत, नेपाल 5.8 प्रतिशत, भूटान 2.5 प्रतिशत, नेत्र श्रीलंका 1.6 प्रतिशत सेहत पर खर्च करते हैं और भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर जी.डी.पी. का मात्र 1.25 फीसदी ही खर्च होता है, जिसकी वजह से भारतीयों पर स्वास्थ्य के खर्चों का बोझ बढ़ जाता है और वह धीरे-धीरे कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं।
इस रिपोर्ट में पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश को हमसे बेहतर बताया गया है। दुनिया में प्रति 1000 जनसंख्या पर अस्पतालों में पलंग की उपलब्धता 3.96 फीसदी है वहीं भारत में यह औसत 0.7 फीसदी मात्र है।
एक ओर भारत को विश्वगुरू और आत्मनिर्भर बनाने की बात की जा रही है दूसरी ओर सच्चाई कुछ और कहानी बयां कर रही है। परंतु सारा दोष देश के राजनैतिक दलों एवं उनके नेताओं को भी देना बेईमानी होगा इसके लिये हम भारतीय मतदाता भी नेताओं से कहीं ज्यादा दोषी है।
हमने आजादी के इतने वर्षों तक भी अपने जनप्रतिनिधियों से कभी प्रश्न ही नहीं किया कि भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की दिशा में क्या योजना है? कभी सरकारो के सामने इन बातों को लेकर कोई आंदोलन नहीं किया, प्रदर्शन नहीं किया, माँग तक नहीं रखी हम लोग तो कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी गरीबी हटाने और मंदिर-मस्जिद के नाम पर सरकारें चुनते रहे और बनाते रहे। आजादी के बाद से ही इन मुद्दों पर ध्यान दिया होता तो आज भारत भी विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़ा होता।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की प्रशंसा किये बिना में नहीं रह सकता जिन्होंने अपनी सरकार की प्राथमिकता में शिक्षा और स्वास्थ्य को ही रखा है जिसकी बदौलत आज दिल्ली के सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की तस्वीर बदल गयी है।
वह तो कोरोना महामारी नहीं आती तो हमारी आँखे भी नहीं खुलती। ऑक्सीजन, रेमडेसिविर, चिकित्सालयों में पलंगों का अभाव से मर रहा मनुष्य जीवित रहेगा तो ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में जाकर आराधना कर पायेंगे यदि जीवन ही नहीं तो मंदिर-मस्जिद किस काम के वास्तव में इस देश को मंदिर-मस्जिदों के स्थान पर राम-रहीम के नाम पर चिकित्सालयों की आवश्यकता है।
उम्मीद है जब जागे तभी सवेरा की कहावत अनुसार अब हम जागेंगे।