विभाजन की त्रासदी के बाद मेरा देश जिस असहाय स्थिति में दिख रहा है बीते 74 वर्षों में कभी नहीं दिखा। शायद कोरोना रूपी प्राकृतिक आपदा जैसा कोई संकट भी इस देश पर नहीं आया था। पर पहली बार हमारा ‘तंत्र’ बेबस और लाचार नजर आ रहा है।
‘गण’ सिर्फ भगवान के रहमो करम पर ही जिंदा रहकर तंत्र के सामने अपने परिजनों की जिंदगी के लिये घुटनों के बल बैठकर भीख मांग रहा है। देश के राजनेताओं ने निरीह जनता के सामने देश की प्रतिष्ठा का एक कृत्रिम बुलबुला बना रखा था। ना जाने क्या-क्या सपने दिखाये जा रहे थे। 21वीं सदी का भारत, नवाचार, आत्मनिर्भर भारत और भी ना जाने क्या-क्या? ऐसे ही सपने दिखाकर आजादी के बाद राजनैतिक दलों ने हम पर शासन किया। कभी गरीबी हटाने का नारा, और कुछ ना मिले तो पाकिस्तान तो है ही लोगों का ध्यान हटाने के लिये।नेताओं द्वारा बनाया गया कृत्रिम फूला हुआ गुब्बारा कोरोना रूपी दबाव नहीं झेल पाया और हम जमीन पर आ गिरे।
वास्तविकता यह है कि आजादी के 74 वर्षों बाद भी हम देश की राजधानी दिल्ली में तरल ऑक्सीजन निर्माण का संयंत्र नहीं लगा पाये। आज तरल ऑक्सीजन हजारों किलोमीटर दूर उड़ीसा से मंगवानी पड़ रही है। देश के नीति नियंता और कर्णधार इस बार भी कोरोना की भयावहता का अंदाजा लगाने में असफल रहे। नागरिकों के साथ ही देश की कर्ताधर्ता भी अपनी लापरवाही से इंकार नहीं कर सकते हैं।
ईश्वर ने हमें समय दिया था कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच। सारी दुनिया चीख-चीख कर कह रही थी कि कोरोना की दूसरी लहर आना शेष है पर हमने नहीं सुनी। नागरिकों के साथ ही शासन- प्रशासन भी कानों में तेल डालकर और आँखों पर पट्टी बाँधकर बैठा रहा।
हमारे देश के सत्ता के भूखे राजनैतिक दलों को तो देश के पाँच राज्यों के चुनावों से फुर्सत नहीं थी सारा देश चुनावों में व्यस्त था। खुलेआम सामाजिक दूरी, मास्क पहनने के कोविड -19 के दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ रही थी और हमारे देश के बेशर्म राजनेता धृतराष्ट्र बनकर यह सब देख रहे थे।
खूब सभाएँ हो रही थी, खूब रैलियां, खूब रैलमपेल थी मामला सत्ता का जो था ‘गण’ जाये भाड़ में। हमारे यहाँ की संवैधानिक संस्था निर्वाचन आयोग भी आँखों पर पट्टी बाँधकर यह सब महसूस करता रहा। निर्वाचन आयोग यह तय नहीं कर पाया कि नागरिकों की जान ज्यादा जरूरी है या चुनाव?
भला हो प्रजातंत्र की न्यायपालिका का जिसने देर से ही सही परंतु इस मामले में संज्ञान लेते हुए केन्द्र सरकार और निर्वाचन आयोग की लानत-मनालत की तब कहीं जाकर छठें चरण के मतदान के बाद निर्वाचन आयोग ने रैलियों और सभाओं पर प्रतिबंध लगाया परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी सारा मामला बिगड़ कर अनियंत्रित हो चुका है। रही सही कसर देश की धार्मिक भावनाओं ने पूरी कर दी। देश के तेरह अखाड़ों के महामंडलेश्वरों को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जो निर्णय लेना था वह उचित समय पर नहीं ले पाये।
जिस कुंभ को कोरोना के संकट काल में प्रतीकात्मक संपन्न किया जाना था उसे शाही ठाठ-बाठ से मनाया। हजारों-लाखों धर्मालुओं ने कोविड-19 के लिये जारी निर्देशों को धत्ता बताते हुए गंगा जी में खूब डुबकियां लगायी। चुनाव और कुंभ ने कोरोना की आग फैलाने में घी का काम किया।
हमारे साहब बहादुर लोग दूसरे देशों को वैक्सीन भेजते रहे पर देश के हालातों का अंदाजा नहीं लगा पाये। आज हालात इतने बदत्तर हो गये हैं कि दूरदर्शन ऑक्सीजन की कमी के कारण अस्पतालों में मरीजों के मरने की खबरों से ही भरा हैं। सुबह उठने पर समाचार पत्र हाथों में आते ही कोरोना से हुई मौतों के प्रतिदिन बन रहे नये रिकार्ड की ही खबरें रहती है।
ऑक्सीजन के अभाव में मरीजों की मौत इस देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है। देश की राजधानी के यह हाल है तो बाकी जगह की कल्पना मात्र से रोम-रोम सिहर उठता है। शहरों के अलावा अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया है।
शाजापुर में जिस तरह जिला चिकित्सालय में मरीजों के परिजनों ने रेमडेसिविर इंजेक्शन लूट लिये, शहडोल में ऑक्सीजन सिलेण्डर स्टोर में से निकालकर कोरोना वार्डों में रख लिये ऐसी अराजक स्थिति भविष्य के आने वाले खतरों की ओर संकेत कर रही है। देश की राजधानी में चिकित्सालयों के बाहर पुलिस का कड़ा पहरा और अस्पतालों के सामने लगे ऑक्सीजन के अभाव में मरीजों की भर्ती बंद है, के बोर्ड देश की तस्वीर बयां कर रहे हैं।
क्या यही है 21वीं सदी का हमारा भारत? कहीं ऐसा ना हो इस देश की जनता सडक़ों पर निकल आये। भगवान करे मेरे देश में ऐसी स्थिति ना बने। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वही अब स्थिति को संभाले इंसान के हाथों से तो बाजी जा चुकी है।