झाबुआ। स्वर्गीय दिलीप सिंह भूरिया कांग्रेस और भाजपा में रहते कहते नजऱ आते थे- नाचे कूदे बांदरी, खीर खाए फकीरा। स्वर्गीय भूरिया की उक्त कहावत उनके रहते और अब न रहते हुए भी याद की जाने लगी है। भूरिया की इस कहावत का असर उनके भाजपा में आने के बाद शायद भाजपा में कुछ ज्यादा ही पड़ा।
स्वर्गीय भूरिया के कांग्रेस से भाजपा में आने के बाद लगातार 2003 के विधानसभा चुनावों से झाबुआ, आलीराजपुर जिले के भाजपा ने अधिकांश चुनावों में पार्टी के कत्र्तव्य निष्ठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर बाहरी या आयातित उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा। पेटलावद विधानसभा हो या थांदला या फिर आलीराजपुर जिले की जोबट या आलीराजपुर विधानसभा सभा सभी में एन चुनाव से पूर्व कांग्रेस छोड़ भाजपा में आए कांग्रेसियों को टिकट दिया गया।
यह बात अलग है कि 2003 के विधानसभा पूर्व हुए हिन्दू संगम का असर अब भी दोनों आदिवासी बाहुल्य जिलों में कायम है और इसी हिन्दू संगम की सफलता की नौका पर भाजपा सवार होकर जिले में लगातार विजय होती रही। किन्तु गत चुनाव में इसका असर एकदम खत्म हुआ तो दोनों जिलों की चारों विधानसभा में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया।
झाबुआ में भाजपाई विधायक आया किन्तु लोकसभा में भी भाजपा के पास पूरे संसदीय क्षेत्र के लिए कोई चेहरा न होने के चलते विधायक बने गुमान सिंह डामोर को मैदान में उतारा। हालांकि मोदी लहर में गुमान सिंह सांसद का चुनाव भी जीत गए। इधर प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता आने के बाद झाबुआ विधानसभा से विधायक बने गुमान सिंह इस्तीफे के चलते रिक्त सीट पर उप चुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने भाजपा को शिकस्त देकर झाबुआ सीट कांग्रेस की झोली में डाल दी।
जोबट विधायक कलावती के निधन के बाद रिक्त हुई सीट पर उपचुनाव होना ही था। जिसकी तैयारी दोनों ही प्रमुख दलों ने कलावती के निधन के बाद से ही शुरू कर दी थी। किन्तु नाम निर्देशन दाखिल करने के कुछ दिन पूर्व तक दोनों ही दलों में रस्सा कशी चलती रही।
जोबट की पूर्व कांग्रेस विधायक सुलोचना रावत और उनके बेटे विशाल ने भाजपा का दामन थाम लिया और भाजपा ने सुलोचना को अपना उम्मीदवार बनाया। सुलोचना की उम्मीदवारी से भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं में भूचाल आ गया।
अचानक भाजयुमो पदाधिकारियों और अन्यों ने इस्तीफा देना शुरू कर दिया। इधर वर्षों भाजपा की जड़े मजबूत करने वाले इंदर सिंह और माधो दादा को टिकट नहीं मिलने से उनके कार्यकर्ताओं में रोष है। भाजपा इन नाराज कार्यकर्ताओं को कैसे मनाती यह तो वो ही जाने किन्तु लगातार उन्नीस वर्षों से (कांग्रेस के 15 माह छोडक़र) सत्ता में काबिज भाजपा न तो लोकसभा चुनाव के लिए संसदीय क्षेत्र में जाना पहचाना चेहरा ढूंढ पाई और ना ही किसी को इस लायक बना पाई।
और तो और जो लोग दिनरात कर ठेठ अंतिम पायदान पर बसे बाशिंदों को शासन की योजनाओं का लाभ दिलाने, योजनाओं का प्रचार करने वालों के साथ झंडे दरी उठाने वालो की उपेक्षा लगातार करती आ रही है।
ऐसा नहीं कि समर्पित, कत्र्तव्यनिष्ठ भाजपाइयों की उपेक्षा लोकसभा, विधानसभा चुनावों में ही होती बल्कि संगठन स्तर के पदों से लेकर स्थानीय स्तर के चुनावों में भी होने लगी। जिसके चलते भाजपाई अपनी पीड़ा संगठन में उठाने के साथ सोशल मीडिया पर भी व्यक्त करने लगे।
भारतीय जनता पार्टी का बाहरी और आयातीत लोगों पर भरोसा करना उपचुनाव कितना सही होगा परिणाम तय करेगा। इधर कांग्रेस में भी जोबट उपचुनाव में बाहरी उम्मीदवार को लेकर अंदर ही अंदर बवाल मचा हुआ है। जोबट की की टिकट का फैसला अंत समय में कमलनाथ ने कद्दावर नेता कांतिलाल भूरिया पर छोड़ा क्या है इसका राज। क्या कांग्रेस संगठन में अभी एक तीर से एकाधिक निशाना साधने में लगे हैं। पढ़ते रहिये उपचुनाव पर मेरी टेढ़ी नजऱ।