अर्जुन सिंह चंदेल
शायद ही दुनिया के किसी शहर का स्लोगन ‘मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं’ होगा। जी हाँ मैं आपको आज ले चल रहा हूँ जनसंख्या के मान से हिंदुस्तान के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ। अलग संस्कृति, अलग खान-पान और प्राचीन इतिहास को अपने ऑचल में सहेज कर रखने वाला शहर अपनी खास नजाकत और तहजीब के लिये जाना जाता है।
इस शहर के इतिहास को लेकर इतिहासकार भी एकमत नहीं है। हिंदु धर्मावलम्बी इतिहासकारों का मानना है कि इसे श्री राम के अनुज लक्ष्मण ने बसाया था इस कारण वर्षों पूर्व इस शहर का नाम लखनपुर और लक्ष्मणपुर हुआ करता था, कुछ का मानना है कि प्रभु श्री राम ने छोटे भाई को यह शहर भेंट किया था इस कारण यह लखनपुर कहलाता था।
परंतु उपलब्ध प्रमाणिक इतिहास के अनुसार लखनऊ शहर को मुगल शासक आसफउद्दौला ने सन् 1775 में बसाया था। लखनऊ शहर के आसपास का काफी बड़ा क्षेत्र ‘अवध’ कहलाता है। अवध क्षेत्र में कई नवाब हुए जिनमें प्रमुख नाम सआदत अली खान, सफदर जंग, शुजा-उद-दौला, आसफुउढौला, वजीर ली, ग्ंगजिउद्दीन हैदर, नसीरउद्दीन हैदर, मुहम्मद अली शाह है।
गोमती नदी के तट पर स्थित इस शहर को अपने राजसी रहन-सहन, खान-पान, भाषा, पहनावे और बोली में नजाकत के कारण नवाबों का शहर भी कहा जाता है।
पूरी दुनिया में ‘लखनऊ’ नाम का शहर अकेला नहीं है भारत के अलावा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप सहित नौ लखनऊ है। परंतु दशहरी आम के बाग, चिकन की कढ़ाई और नवाबी खान-पान वाला लखनऊ भारत में ही है और उत्तरप्रदेश की राजधानी है। सन् 1850 में वाजिद अली शाह लखनऊ के अंतिम नवाब हुए उसके बाद अँग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया और भारत में मिला लिया।
हमें भी विवाह समारोह के दौरान समय मिल गया और हम भाई-भाभियों सहित निकल पड़े लखनऊ की सैर पर और पहुँच गये बड़ा इमामबाड़ा जिसे भूलभुलैया के नाम से भी जाना जाता है। इसका निर्माण अवध के नवाब आसफउद्दौला द्वारा सन् 1784 में शुरू किया गया था।
इस इमामवाड़े का गुंबदनुमा हॉल लगभग 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊँचा है, छत पर जाने के लिये लगभग 84 सीढिय़ां हैं। बड़ा इमामवाड़ा के निर्माण की भी बड़ी रोचक दांस्ता है, सन् 1784 में लखनऊ में भीषण अकाल पड़ गया था तब नवाब आसफ-उद-दौला ने प्रजा को रोजगार मिल सके इसलिये इसका निर्माण कराया था, सुबह इस इमारत का निर्माण शुरू होता था और रात में इसको गिरा दिया जाता था।
दिन में इसे बनाने में गरीब लोग काम करते थे जिन्हें सार्वजनिक रूप से श्रम करने से परहेज नहीं था और इमारत को गिराने का काम रात को किया जाता था इस समय शहर के इज्जतदार और प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य कार्य करते थे क्योंकि वह दिन के उजाले में सार्वजनिक रूप से मजदूरी का काम नहीं कर सकते थे।
यहाँ गौरतलब बात यह है कि तब आदमी से काम लेकर अनाज दिया जाता था ताकि वह आलसी ना बन जाये वर्तमान सरकारों की तरह मुफ्त अनाज देने की योजना नहीं थी। गोमती नदी किनारे स्थित सुंदर बड़ा इमामवाड़ा की वास्तुकला ठेठ मुगल शैली को दर्शाती है। यह दुनिया की पाँचवी सबसे बड़ी मस्जिद भी मानी जाती है। इतिहास गवाह है कि इमामवाड़ा का निर्माण और अकाल दोनों ही 11 साल चले।
इसके निर्माण में करीब 20000 श्रमिक शामिल थे जिनको रोजगार मिला, उस समय इसके निर्माण में 8 से 10 लाख रुपयों की लागत आयी थी। इमामवाड़ा को भूल भुलैया के नाम से भी जाना जाता है, अंदर जाने के लिये यहाँ 1024 से भी ज्यादा छोटे-छोटे रास्तों का जाल है और बाहर निकलने के लिये सिर्फ 1 रास्ता है वे भी 1 मिनट का। दीवारों के बीच छुपी हुयी लंबी-लंबी गलियां है जो लगभग 20 फीट तक चौड़ी है।
इसके झरोखे से प्रवेश करने वाला हर व्यक्ति देखा जा सकता है जबकि वह व्यक्ति आपको बिल्कुल भी नहीं देख सकता है, ऐसा अनोखा झरोखा किसी भी भवन में आज तक नहीं बना। एक मुख्य बात यह भी है कि यहाँ की दीवारों के भी कान है पचास फीट दूर से दीवार के दूसरी तरफ से बोली गयी बात को आसानी से सुना जा सकता है।
बड़ा इमामवाड़ा (भूल-भुलैया) की सैर के बाद हम पहुँच गये मुख्य बाजार में पेट-पूजा करने वहाँ की प्रसिद्ध राधेलाल जी की मिठायी दुकान में ‘मलाई रॉकेट’ का मजा लेने के बाद ‘मलाई चाप’ का भी आनंद लिया अंत में चिकन कढ़ाई की दुकान में जमकर खरीदी कर यात्रा को विराम दिया।