पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के लिये अपेक्षित परिणाम ना आने के बाद अपशकुनों से पीछा ही नहीं छूट रहा है। ताजा मामला देव भूमि ‘उत्तराखंड’ का है जहाँ भाजपा के नेतृत्व ने चार माह पूर्व 10 मार्च को वहाँ के 57 भाजपा विधायकों की उपेक्षा कर पौढ़ी गढ़वाल के सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री घोषित कर विधायकों के अरमानों पर पानी फेर दिया था। भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व को तीरथ सिंह से यह उम्मीद थी कि वह सभी विधायकों एवं कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलेंगे और संतुष्ट कर पायेंगे, परंतु भाजपा का यह पांसा उल्टा साबित हुआ।
मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अपने विवादित बड़बोलेपन के कारण अखबारों की सुर्खियां बनते रहे, महिलाओं द्वारा फटी जीन्स पहनने पर टिप्पणी, ‘भारत-अमरीका का 200 वर्षों तक गुलाम रहा’, ‘गंगा में डुबकी लगाने से नहीं होगा कोरोना’। इस तरह के बयानों से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी उनकी परिपक्कवता समझ आ गयी। कार्यकर्ताओं और विधायकों में बढ़ते असंतोष के दावानल की आग की लपटें दिल्ली तक पहुँची और मात्र 114 दिनों में ही पार्टी को उनका त्यागपत्र लेना पड़ा। तीरथ सिंह चूँकि विधानसभा के सदस्य नहीं थे इसलिये उन्हें 10 सितम्बर के पूर्व चुनाव जीतकर विधायक बनना आवश्यक था। कोरोना से निपटने में उत्तराखंड सरकार की विफलता से नागरिक नाराज थे, साथ ही भाजपा शासन में देवस्थानम बोर्ड की स्थापना से भी गंगोत्री-यमुनौत्री क्षेत्र के नागरिकों में सरकार के प्रति असंतोष था।
केन्द्र की भाजपा सरकार को यह पक्की सूचना थी कि यदि तीरथ सिंह को चुनाव में उतारा तो उनकी हार तय है और यदि मुख्यमंत्री चुनाव हार जाते तो इसका प्रभाव वर्ष 2022 के प्रारंभ में उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश सहित अन्य राज्यों के चुनावों पर भी पड़ता, पराजय के भय से मुख्यमंत्री को हटाना आवश्यक हो गया था इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा था। उत्तराखंड में अभी दो विधानसभा सीटें भी रिक्त हैं पहली गंगोत्री की जहाँ के भाजपा विधायक गोपाल सिंह की ह्रदयाघात से मौत हो गयी थी, दूसरी हल्द्वानी की सीट जो काँग्रेसी विधायक इंदिरा की मृत्यु के कारण रिक्त हुयी है। चूँकि यदि तीरथ सिंह गंगोत्री सीट से लड़ते तो उस क्षेत्र का मतदाता भाजपा से नाराज है और हल्द्वानी सीट पर काँग्रेस का प्रभाव साथ ही इंदिरा की मौत से सहानुभूति वोट भी काँग्रेस की झोली में जाना तय थे।
भाजपा जनप्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 151 ए का हवाला देकर तीरथ सिंह को हटाने का कारण बता रही है, परंतु यह सच नहीं है क्योंकि ऐसी ही परिस्थितियों में पहले उड़ीसा, नागालैंड एवं अन्य राज्यों में उपचुनाव कराये जा चुके हैं। राजनैतिक रूप से शायद देवभूमि शापित है। 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया उत्तराखंड अपने 21 वर्षों की अवधि में 11वें मुख्यमंत्री को देखेगा, श्री नारायण दत्त तिवारी को छोडक़र कोई भी मुख्यमंत्री अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है।
काँग्रेस ने अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में 3 मुख्यमंत्री दिये तो वहीं भारतीय जनता पार्टी ने 10 वर्ष के शासन में 6 मुख्यमंत्री बदल दिये और 7वें की ताजपोशी होने वाली है।
कौन कितने दिन मुख्यमंत्री रहा
- नित्यानंद स्वामी 9 नवंबर 2000 से 29 अक्टूम्बर 2001 तक (कुल-354 दिन)
- भगतसिंह कोश्यारी 30 अक्टूम्बर 2001 से 1 मार्च 2002 तक (कुल 122 दिन)
- श्री नारायण दत्त तिवारी 2 मार्च 2002 से 7 मार्च 2007 (5 साल 5 दिन)
- भुवनचंद्र खंडूडी 7 मार्च 2007 से 26 जून 2009 (2 साल 111 दिन)
- रमेश पोखरियाल निशंक 27 जून 2009 से 10 सितम्बर 2011 (दो साल 75 दिन)
- भुवनचंद्र खंडूडी 11 सितम्बर 2011 से 13 मार्च 2012 (184 दिन)
- विजय बहुगुणा 13 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014 (1 साल 324 दिन)
- हरीश रावत 1 फरवरी 2014 से 18 मार्च 2017 (3 साल 21 दिन)
- त्रिवेन्द्र सिंह रावत 18 मार्च 2017 से 10 मार्च 2021 (3 साल 357)
- तीरथ सिंह रावत 10 मार्च 2021 से 3 जुलायी 2021 (114 दिन)।
11वें मुख्यमंत्री उत्तराखंड में अभी तक के मुख्यमंत्रियों में सबसे कम 45 वर्ष की उम्र के पुष्कर सिंह धामा जो कि कुमाऊँ क्षेत्र के खटीमा विधानसभा सीट से दूसरी बार विधायक बने हैं। श्री धामा पूर्व मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र के वर्तमान राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी के विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी रह चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी नाव की पतवार उत्तराखंड में उनके हाथों में सौंपकर चुनावी वैतरणी पार करने का दांव खेला है।
अभी तक किसी भी मंत्रिमंडल में नहीं रहने वाले धामा क्या आगामी चुनावों में पार्टी की विजय पताका फहरा पायेंगे यह भविष्य के गर्त में छिपा है जिसके परिणाम का इंतजार करना होगा।