शायद बहुत कम पाठकों को यह जानकारी होगी कि जिस ‘रेमडेसिविर’ इंजेक्शन के लिये आज देश भर में मारा-मारी चल रही है वह रेमडेसिविर ईजाद करने वाले अमेरिकी फार्मास्युटिकल कंपनी गिलियड सांइसेज है। इस दवा का निर्माण शुरुआत में हेपेटाईटस बी के लिये किया गया था परंतु उस बीमारी पर यह कारगर सिद्ध नहीं हुई फिर इबोला (वायरल रक्त स्त्रावी बुखार) वायरस पर भी इसका प्रयोग किया गया परंतु उसमें भी यह बेअसर साबित हुई और रेमडेसिविर को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
रेमडेसिविर एक न्यूकिलोसाइड राइबोन्यूक्लिक एसिड (आर.एन.ए.) पोलीमरेज इनहिबिटर इंजेक्शन है।
यह 100 एम.एल. जीवाणु रहित प्रीजर्वेटिव फ्री आइयोफिलाइज्ड सॉलिड इंजेक्शन है जिसे 19 एम.एल. जीवाणु रहित पानी के साथ तैयार कर 0.9 प्रतिशत खारे पानी के साथ मिलाया जाता है, इसे तैयार करने के बाद 5 एम.एल. रेमडेसिविर के मिश्रण के साथ एक 20 एम.एल. खुराक की शीशी तैयार की जाती है। इसे 30 डिग्री से नीचे के तापमान पर रखा जाता है उपयोग से पहले 2 डिग्री से 8 डिग्री तापमान पर होना चाहिये। कहावत है ना 12 सालों में घूड़े के दिन भी फिरते हैं जो गिलियड दवा कंपनी द्वारा ईजाद रेमडेसिविर हेपेटाइटस बी और इबोला जैसी बीमारी में असफल रहा वह कोरोना में सफल हो गया।
गत वर्ष 2020 की शुरुआत में कोविड-19 का प्रकोप शुरु होते ही गिलियड कंपनी ने यूनाइटेड स्टेटस नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ एलर्जी एण्ड एंफेन्शस डिजीज (एन.आई.ए.आई.डी.) के सामने रेमडेसिविर का परीक्षण कोविड के मरीजों पर करने हेतु अनुमति माँगी जो उसे मिल गयी। गिलियड कंपनी ने कोविड के विरुद्ध क्लीनिकल ट्रायल्स के लिये अमेरिका के नेशनल इंस्टीटयूटस ऑफ हेल्थ और दूसरे अंतरर्राष्ट्रीय संस्थाओं से पैसा उधार लिया। अमेरिकी संस्था नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ एलर्जी एण्ड इंफेक्शंस डिजीजेस (एन.आई.ए.आई.डी.) ने दुनिया के अनेक देशों जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस, इटली, दक्षिण कोरिया के अस्पतालों में भर्ती 1063 मरीजों पर रेमडेसिविर का परीक्षण किया इसके साथ ही प्लेसिबो एवं अन्य दवाइयों का भी परीक्षण किया गया जिसमें पाया गया कि रेमडेसिविर मरीज के शरीर में जाकर सीधे वायरस पर हमला करती है।
साँस की तकलीफ के कारण अस्पताल में भर्ती कोरोना वायरस मरीज प्लेसिबो की तुलना में 31 प्रतिशत जल्दी ठीक हो रहे हैं। मृत्यु दर भी रेमडेसिविर की 8 प्रतिशत रही जबकि प्लेसिबो से 11.6 प्रतिशत रही। परीक्षण से यह निष्कर्ष निकला कि गंभीर मरीज जिन्हें साँस लेने में ज्यादा तकलीफ हो रही है या ऑक्सीजन सपोर्ट पर रखा गया था उनके लिये रेमडेसिविर रामबाण साबित हुई। दवा को परीक्षण की स्थिति तक लाना भी कठिन कार्य है। किसी दवा को विकसित करने में 12 वर्ष का समय लग जाता है और 5000 दवाओं में से मात्र 1 ही दवा बाजार तक पहुँच पाती है और बाजार में आने के बाद 20 साल में उसका पेटेंट खत्म हो जाता है।
किसी समय डूब चुकी दवा कंपनी गिलियड के व्यवसाय के बारे में रॉयल बैंक ऑफ कनाडा का अनुमान है क वह 2 से 3 अरब डॉलर का मुनाफा कमाने की स्थिति में है। क्लीनिकल एण्ड इकनॉमिक रिव्यू इंस्टीटयूट (आई.सी.ई.आर.) के अध्ययन में प्रति मरीज दस दिन के उपचार में 750 भारतीय रुपयों का व्यय संभावित किया गया था। बढ़ती माँग को देखते हुए गिलियड ने भारत की 4 कंपनियों के साथ रेमडेसिविर के निर्माण का करार किया है यह भारतीय कंपनियां है सिप्ला लिमिटेड, हेटेरो लैबस लिमिटेड, ज्यूबिलेंट लाईफ सेविंग्स और माइलन एन.के. भारत दुनिया के 127 अन्य निम्न, मध्यम एवं उच्च मध्यमवर्गीय आय वालों को यह रेमडेसिविर बनाकर बेच सकता है।
देश की तरह उज्जैन में भी रेमडेसिविर का कृत्रिम अभाव है और मरीज के परिजन इधर-उधर भटक रहे हैं। कुछ अर्थपिशाच लोग जिन मरीजों को रेमडेसिविर की आवश्यकता नहीं है उन्हें भी यह इंजेक्शन ठोक रहे हैं इससे यह फायदा है कि एक तो मरीज 6 दिनों के लिये निजी चिकित्सालय में पक्का हो गया है क्योंकि रेमडेसिविर का कोर्स ही 6 दिनों का है शुरु दिन 200 एम.एल. बाकी 100-100 एम.एल. चार दिन इन छह दिनों में अस्पताल का मीटर चालू रहता है इस कारण भी बाजार में अभाव पैदा हो गया है।
मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ उज्जैन की मीडिया का जिन्होंने अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वहन करते हुए प्रशासन के संज्ञान में इस विषय को लाया साथ ही संवेदनशील जिलाधीश आशीष सिंह जी जिन्होंने मीडिया में प्रकाशित खबरों पर कार्यवाही करते हुए निजी चिकित्सालयों के लिये कड़े दिशा निर्देश जारी किये हैं। उम्मीद की जाती है इसके बाद रेमडेसिविर की कालाबाजारी रुकेगी और जरूरतमंद मरीजों तक रेमडेसिविर पहुँचेगा।